साहित्य एक नज़र 🌅 अंक - 9 , बुधवार , 19/05/2021

साहित्य एक नज़र





साहित्य एक नज़र , अंक - 9
( कोलकाता से प्रकाशित होने वाली दैनिक पत्रिका )

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🌅 साहित्य एक नज़र  🌅
Sahitya Eak Nazar
19 May , 2021 , Wednesday
Kolkata , India
সাহিত্য এক নজর

अंक - 9
19 मई 2021
   बुधवार
वैशाख शुक्ल 7 संवत 2078
पृष्ठ - 1

कुल पृष्ठ - 12

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साहित्य संगम संस्थान जम्मू-कश्मीर इकाई के समस्त पदाधिकारियों एवं सक्रिय सदस्यों साहित्यकारों को सम्मानित किया गया ।

साहित्य एक नज़र 🌅 , बुधवार , 19 मई 2021

बुधवार , 19 मई 2021 को साहित्य संगम संस्थान के संयोजिका आ. संगीता मिश्रा जी की करकमलों से 
साहित्य संगम संस्थान जम्मू-कश्मीर इकाई  के पदाधिकारियों व सक्रिय सदस्यों को सम्मानित किया गया । आ. प्रदीप मिश्र अजनबी जी ,आ. भूपेंद्र कुमार भूपी जी , आ. मदन गोपाल शाक्य जी , आ. हर किशोर परिहार जी , आ. शिव सन्याल जी को साहित्य मणि सम्मान से विभूषित किया गया, सक्रिय सदस्यों
आ. अर्चना श्रीवास्तव जी , आ. अजय तिरहुतिया जी , आ. बेलीराम कंसवाल जी , आ. गिरीश पांडे जी , आ. हंसराज सिंह हंस जी को उत्तर प्रदेश संगम सलिला सम्मान से सम्मानित किया गया । महागुरुदेव डाॅ० राकेश सक्सेना जी (अध्यक्ष उत्तर प्रदेश इकाई) इकाई की प्रगति में समस्त सर्वाधिक सक्रिय सदस्यों का भी अहम योगदान मानते हैं इसलिए सक्रिय सदस्यों को संगम सलिला से सम्मानित किया जाता है। राष्ट्रीय अध्यक्ष महोदय आ. राजवीर सिंह मंत्र जी , कार्यकारी अध्यक्ष आ. कुमार रोहित रोज़ जी , सह अध्यक्ष आ. मिथलेश सिंह मिलिंद जी, संयोजिका आ. संगीता मिश्रा जी ,  पश्चिम बंगाल इकाई अध्यक्षा आ. कलावती कर्वा जी ,  राष्ट्रीय सह मीडिया प्रभारी व पश्चिम बंगाल इकाई सचिव रोशन कुमार झा , आ. स्वाति पाण्डेय 'भारती' जी  ,आ. अर्चना जायसवाल जी , अलंकरण कर्ता आ. स्वाति जैसलमेरिया जी, आ. मनोज कुमार पुरोहित जी,आ. रजनी हरीश , आ. रंजना बिनानी जी, आ. सुनीता मुखर्जी , आ. मधु भूतड़ा 'अक्षरा' जी , आ. रीतु गुलाटी जी ,आ. भारत भूषण पाठक जी , आ. अर्चना तिवारी जी , संगम सवेरा के संपादक आ. नवल किशोर सिंह जी , वंदना नामदेव जी समस्त सम्मानित पदाधिकारियों व साहित्यकारों उपस्थित होकर  सम्मानित हुए पदाधिकारियों व सक्रिय सदस्यों को बधाई दिए ।

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20 मई 2021 को हिंददेश परिवार गाजियाबाद इकाई का उद्घाटन समारोह ।

साहित्य एक नज़र 🌅 , बुधवार , 19 मई 2021

हिंददेश परिवार गाजियाबाद इकाई का उद्घाटन समारोह 20 मई 2021, गुरुवार को है। यह कार्यक्रम सुबह आठ बजे से रात्रि दस बजे तक होंगे । इस कार्यक्रम में अध्यक्ष व संस्थापिका आ. डॉ अर्चना पांडेय 'अर्चि' जी , सह अध्यक्ष आ. डॉ स्नेहलता द्विवेदी जी , महासचिव आ. बजरंगलाल  केजडी़वाल जी , अंतरराष्ट्रीय मीडिया प्रभारी आ. राजेश कुमार  पुरोहित जी, पश्चिम बंगाल मीडिया प्रभारी रोशन कुमार झा, हिंददेश परिवार के समस्त सम्मानित पदाधिकारियों व साहित्यकारों उपस्थित होकर काव्य पाठ करेंगे, अतः आप सभी सम्मानित साहित्यकार व साहित्य प्रेमी आमंत्रित हैं ।।

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काल के गाल में समाती ज़िन्दगीयां।
चीख चीत्कार की आवाज़ें और सिसकियां।
तुम अदृश्य शत्रू से इंसानियत को रौंदते।
अपनी भयाभय के वो स्हाय चिह्न छोड़ते।
विष के झागों से भरी,
सारे विश्व को डसती फुवारें।
अपने गरल दन्त से,
दुनियाँ में खड़ी करते मौत की दीवारें।
ये इंसा का फैलाया , है तांडव नर्तन।
हो रहा विश्व का करुण विवर्तन।
मतकर बेज़ुबानों का भक्षण।
मतकर प्रकृति का उल्लंघन।
पाट दिया धरा को,
परमाणू बारूदी हथियारों से।
आसमां भी पाट दिया,
अंतरिक्ष के अम्बरों से।
प्रकृति की मानव से जंग जारी है।
ये तो धरा का प्रकोप है,
संभल ये इंसा, अब आसमां की बारी है।
ये तो कोरोना है, अभी कितनी और फैलनी महामारी हैं।

✍️ प्रमोद ठाकुर
    ग्वालियर
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✍🏻 अब तो कलम भी हार गई है ✍🏻

ये कैसी बवा धरा पर आई है,
हर घर-हर पल मौत तांडव कर रही है,
दवा और दुवा कुछ भी काम नहीं कर रही है,
न अस्पताल में और ना ही श्मशान में जगह मिल रही है,
चारों ओर मानव त्राहि-त्राहि माम् हो रहे है,
कोई-सा दिन या कोई-पहर नहीं खाली जाता है,
किस न किसी के अजीज की मरने की खबर आती है,
अब तो अश्कों से आँसू भी इस तरह भयभीत है,
इनसे अब तो रोया नहीं जाता है
*ॐ शांति ॐ* और श्रद्धांजलियां दे कर,
लिख-लिख अब तो कलम भी गई है हार,
मत कर ऐ मौत ! तू इतना भी तांडव अब ठहर जा,
बिना कसूर किसी के अपनों को यूं ही उठाती रही जा,
शर्म कर तू अब थोडा-सा शर्म नहीं आती तुझे क्या ?
बे-शर्मी से उजाड़ती है किसी का भी घर तू क्यों?
 

✍️ चेतन दास वैष्णव
      गामड़ी नारायण
         बाँसवाड़ा , राजस्थान
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अंक - 9
19 मई 2021
   बुधवार
वैशाख शुक्ल 7 संवत 2078
पृष्ठ -  3

विषय :- हम धरती के संतान है ,

हम धरती के संतान है ,
पवित्र हमारा जन्मस्थान है ।
जहाँ राम , कृष्ण भगवान है ,
कर कर्म , कर्म करने वाला हम इंसान है ।

कला और विज्ञान है ,
सीखाने के लिए विद्वान हैं ।
सच में हमारा देश महान ,
हम हिन्दुस्तानी
देश हमारा हिन्दुस्तान है ।

धरती के हम संतान है ,
धरती से ही हमारा मान है ।
सीखना और हमें ज्ञान है ,
क्योंकि धरती पर
हम बुद्धिजीवी इंसान है ।।

✍️ रोशन कुमार झा
सुरेन्द्रनाथ इवनिंग कॉलेज,कोलकाता
कलकत्ता विश्वविद्यालय
ग्राम :- झोंझी , मधुबनी , बिहार,
मो :- 6290640716, कविता :- 19(99)

🌅 साहित्य एक नज़र 🌅 अंक - 9
Sahitya Eak Nazar
19 May , 2021 , Wednesday
Kolkata , India
সাহিত্য এক নজর

"आओ!संभाल लें"

कभी आरोह, कभी अवरोह सी है जिंदगी,
कभी सुलझी , कभी उलझी है जिदंगी,
मैं हूं, तुम भी, वे भी , सब भीड़ से
दुनिया सी बन जाती है जिदंगी,
कोई बात मन भाती, कोई तुझ भाती, और कुछ प्रकृति भाती है,
इस उहापोह को ही दे पाते हैं नाम जिदंगी,
आज है, कल नहीं ,यही सत्य समझाती है जिदंगी,
सुनो मित्र! पल का विश्वास संभाल लें,
आओ संभाल लें यह टिमटिमाती सी जिदंगी।

✍️ डॉ. मंजु अरोरा
लेखिका/प्रचार्या.सी.सै़.स्कूल.जांलधर।
जालंधर,पंजाब।                      
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वह अप्रतिम देश कहाँ है!

समस्त घृणा और विभेद को त्याग
मानवता के प्रति जगा कर राग
किया अशुभ का क्षय और नाश
विश्वगुरु बन किया तिमिर का ह्यास
भारत ने देकर मंत्र महान
रचा धरा पर स्वर्गीय अधिष्ठान

धर्म का मर्म समझा कर जग को
आत्मज्ञान से उज्ज्वल कर मन को
भर स्वयंप्रकाश चिरंतन असीम
दिया ज्ञान दर्शन चरित्र अप्रतिम
सत्य अहिंसा शुचिता का संदेश
भारत मानवता का पावन देश

बढ़ा अधर्म तमस अंधविश्वास जब
दुराचार अन्याय अपहरण दमन जब
जन जन का मन जब गया हार
तब तब मनुष्यता ने लिया अवतार
प्रकट हुआ धरती के सीने को फाड़
बन प्रलयंकारी प्रकोप विकराल
मिटा देने को समस्त धरा से
दुर्नीतियों का असह्र भार

राजतंत्र में प्रजा सबल थी
जनहित की धारणा प्रबल थी
राजधर्म और कर्तव्य पालन हित
सीता तक निर्वासित होती थी

राजा रंक बने फिरते थे
जन के सम्मुख मुकुट झुकते थे
तृण सदृश थे राज त्यागते
भिक्षुक बने थे प्रजा पालते
राजसिंहासन एक प्रतीक मात्र था
राजा के हाथों दानपात्र था।

पर यह क्या सब मिथकमात्र है
होता यदि ऐसा कोई भारत तो
कांप रहा क्यों आज जनगात्र है

चारों ओर हिंसा मार-काट
नारी उत्पीड़न बलत्कार
दिन-दहाड़े शिरोच्छेदन अत्याचार
कहाँ गया वह सारा आदर्श
राजधर्म का महापतन
लोकतंत्र में वंशवाद
विदूषक बने हैं कर्णधार
नहीं! अतीत का सब झूठ है
आज हमारा देश ठूंठ है।

ऋजुता सत्यता हो रही कलंकित
पतित पापप्रिय निद्र्वंद्व अशंकित
तमस आज छाया चतुर्दिक
अनीति ही सम्मानित सर्वदिक
भ्रष्टाचार का विस्तीर्ण फलक है
लोकतंत्र का सूख रहा हलक है

अराजकता अनाचार का साम्राज्य है
देश को अपने अतीत की तलाश है
भारत का जन जन ढूँढ़ रहा है
वह अप्रतिम हमारा देश कहाँ है!

✍️ नाम -  नेहा कुमारी चौधरी
पदनाम - विद्यार्थी
कक्षा -M. A (4 th semseter )
महाविद्यालय का नाम -कलकत्ता विश्वविद्यालय, हावड़ा नवज्योति।
फोन नंबर 7278036897
ईमेल -smartneha2397@gmail.com
जन्मतिथि-23/07/1997
पता - इच्छापुर डुमुरजाला  एच.आइ. टी.  क्वार्टर ब्लॉक 17 रूम नंबर 14 टाइप 3आर  हावड़ा 711104

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कविता

"" एक नज़र ""

आज मैंने
एक नजर
उन्हें देखा
सोचा और समझा
तो यही पाया कि
वो हमारे लिए व्याकुल है
और
हम उनके बिना
व्याकुल है
इसलिए कुछ
शब्द संयोजन करके
कुछ लिखा तो वो
कविता के रूप में
उदय हुआ
शायद यही हैं
मेरी नज़र में
साहित्य एक नज़र।।

✍️ मनोज बाथरे चीचली
जिला नरसिंहपुर मध्य प्रदेश

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गीत रचना,,,,,,, घर से दफ्तर, दफ्तर से घर,
रचनाकार,,,,,,,,  डॉक्टर देवेंद्र तोमर

घर से दफ्तर, दफ्तर से घर,
यूं आना जाना रोज हुआ।
दिल से मिलना भूल गए हम
बस हाथ मिलाना रोज़ हुआ।

कागज की मुस्कानें लेकर
उत्सव में शामिल रोज हुए
जहर उगलती सांसें लेकर
फिर खड़े-खड़े ही भोज हुए
व्हिस्की, रम, उंगली में थामे
कुछ  कांटे खाना रोज हुआ।
दिल से मिलना भूल गए हम
बस हाथ मिलाना रोज हुआ।

चौपालों की रामधुनें तो
उस बीते युग की बात हुईं
हुई कहानी गुम नानी की
गुम टेसू की बारात हुई
डिस्को की थिरकन पर थिरके
फिर नंगा गाना रोज हुआ।
दिल से मिलना भूल गए हम
बस हाथ मिलाना रोज हुआ।

संस्कारों की गठरी बांधी
हैं परंपराएं खूंटी पर
पूजा घर में फूल नहीं है
अब सारा पैसा ब्यूटी पर
नीली पिक्चर वाली सीडी
घर  लेकर आना रोज हुआ।
दिल से मिलना भूल गए हम
बस हाथ मिलाना रोज हुआ।

घर से दफ्तर, दफ्तर से घर,
यूं आना जाना रोज हुआ।
दिल से मिलना भूल गए हम
बस हाथ मिलाना रोज हुआ।

✍️ डॉक्टर देवेंद्र तोमर
अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष
विश्व साहित्य सेवा संस्थान
_______

* लंकापति रावण बहुत था ज्ञानी *
**************************

लंकापति  रावण  बहुत  था  ज्ञानी,
चारों वेद  थे  उसको  याद जुबानी।

शक्तिशाली नृप  जग  में कहलाया,
शक्ति में अंधा बन बैठा अभिमानी।

शिव  की भक्ति करता लंका नरेश,
की नही कभी किसी संग बेईमानी।

स्वर्ण रजित सुन्दर  महल बनवाया,
सोने की नगरी का नहीं कोई सानी।

तेजस्वी,पराक्रमी, प्रतापी,रूपवान,
पाप,अधर्म,अनीति बनाया अज्ञानी।

सीता का धूर्तता से हरण कर लाया,
जीवन मे  यही कर बैठा वो नादानी।

पराई स्त्री  को  छुआ तक  नही था,
नही पंहुचाई  कोई  शारीरिक हानि।

हठधर्मिता के कारण ही  दैत्येन्द्र ने,
स्वर्ण नगरी  लंका  पड़ गई  हरानी।

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ने  हराया,
अहंकार वशीभूत पड़ी मात खानी।

पुतला  उनका  ही है जलता आया,
बहुत  रावण हैं जग में करें शैतानी।

हर जन मन में दशानन अब बसता,
राम समरूप नही,न सीता महारानी।

इंसान लगे  आज रावण से बदत्तर,
धूर्त,अधर्मी,करते पग पग बेईमानी।

मनसीरत कहे आज कोई राम नहीं,
रावण को बदनाम करेते महाज्ञानी।
***************************

✍️ सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)
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पूजा कुमारी
रामकृष्ण महाविद्यालय मधुबनी बिहार
राष्ट्रीय सेवा योजना
पेंटिंग

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एक कविता
चांदी का चम्मच

लाल बत्ती पर देखा उस लड़की को
गुब्बारे बेचते और
हाथों की आड़ी तिरछी रेखाओं में
कुछ खोजते हुए
कातर निगाहों से देख रही थी
मानो पूछ रही हो
चमचमाती वातानुकूलित गाड़ी में
बैठे बाबू से
दूर खड़ा
कनखियों से देखता
परिहास करता हुआ
मुक़द्दर
छांव में भी तपन का
अहसास करा गया
ये चांदी का चम्मच भी
अजीब अनसुलझी
पहेली है-----।

✍️ अल्पना नागर
नई दिल्ली।

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" जवाब मांगता हूं "

देना कोन चाहता है, जब कोई हिसाब मांगता है!
करना तुझे ही बहाल है, फिर क्यो जवाब मांगता है!

सुनो ये खिचड़ी, दाल ,दलिया सब दलाली के साधन है
गांव का हर एक बच्चा अब किताब मांगता है!

ये मंदिर मस्जिद के बहाने बांटना अब बंद कर दो,
बदलता दौर है गली का हर हुनरअब खिताब मांगता है!

डूबता शक्स तिनके के सहारे कब संभलता है
पुराने कर्ज में डूबा किनारे के लिए अब नाव मांगता है!

बुरा है बक्त जबतक बख्श दो ना  जान उसकी
बिलखता भूख से बंदा कब कबाब मांगता है!

करीबी ना सही उपकार करके देख लेना
दुआए आपके खातिर रब से बेहिसाब मांगता है!

उखड़ती सांस अपनों की पड़ी लाशे तितर बितर
ये मंजर से भरा चेहरा अब तेज़ाब मांगता है!

सुबह का चीखता अख़बार तुम्हे धिक्कार लिखता है
चिताओ पर सुलगता लोकतंत्र जब चुनाव मांगता है!

               ✍️  -नीरज (क़लम प्रहरी)
                कुंभराज, गुना (म. प्र.)

_____
डा0 प्रमोद शर्मा प्रेम के मुक्तक   
  
                    1 
सभी को  कीमत हवा की बतायें सभी
सभी को देखकर अब  मुस्कुराये सभी
लगेगी प्यास तो पानी कहाँ से लाओगे
देर ज्यादा न हो जाये पेड लगायें सभी
      
                     2
बद से बदतर हुए ....जिन्दगी के रास्ते
आदमी मरता रहा..ख्वाहिशों के वास्ते
स्वार्थ के मोहपाश मे बाँध बैठे है जबां
है बुराई खुश 'करती है.. सच के नाश्ते
                     3
सभी को  कीमत हवा की बतायें सभी
सभी को देखकर अब  मुस्कुराये सभी
लगेगी प्यास तो पानी कहाँ से लाओगे
देर ज्यादा न हो जाये पेड लगायें सभी               
                      4
पेड से जब  भाऱी पके फल गिरने लगे
मुझ पर  इल्जाम रोज पानी क्यो दिया
कुछ लोगों ने रंजिश से मोहब्बत करके
खुद को नफरत के सागर ने डुबो दिया
                     5
याद आते है बहुत  दिन पुराने वाले
खुश नही  गाँव  से शहर जाने वाले
रहेगा कब  तलक ये मौत का मंजर
बता कुछ तू ही तकदीर बनाने वाले
                      6
हर तरफ लगता है  केवल खौफ बाकी
जहनो दिल रहे साफ  रखो होश बाकी
है वक्त के पहिये का रूख शामो सवेरा
कभी जिन्दगी मे छाँव कभी धूप बाकी
        
✍️ डॉ. प्रमोद शर्मा प्रेम
नजीबाबाद बिजनौर
_________
* माँ की आंचल *

माँ की आंचल की खुशबू
किसी उपवन में ना मिल पाती है,
सुलाती है मां जब थपकी देकर आज भी
भटके मन को जैसे जन्नत मिल जाती है।

बाल न बांका हो सकता कभी
मां की दुआ में असर है इतनी,
निफिक्र होकर निकलता हूं घर से
जब रखती है मां सर पर हाथ अपनी।

मां ही धरती मां ही आसमां
मां से ही सारा जहां है,
मां ही सरित मां ही प्यास
मां के बिन कहां कोई यहां है ।

कोई जन्म दात्री तो
कोई पालनकारी मां है,
दोनों का हक है बराबर बच्चों पर
दोनों ही कल्याणकारी मां है ।

मां के चरणों का धूल
यूं ही माथे पर लगाता रहूंगा,
खुदा करे मेरी उम्र भी लग जाए मां को
ताकि ताउम्र मां के आंचल में सोता रहूंगा ।।

संजीत कुमार निगम
फारबिसगंज, अररिया (बिहार)
मोबाइल - 7070773306

_________
ये जमीं रो रही,
   आसमान रो रहा है।
       लाशों का ढेर देख,
         यहाँ इंसान  रो रह है।

कब्रिस्तान में भी नहीं
    जगह कही खाली।
        शमसान भी रो रहे है,
            कब होगी जगह खाली।

चारो तरफ अंधेरा,
    सन्नाटा पसर गया है।
        त्राही त्राही करता
            इन्शा गुजर गया है।

तकती है निगाहें,
     कोई सुकून मिलता।
          सब कुछ खो गया है,
               सूनी राह सूना किनारा।

मत करना धमण्ड,
   काया और माया का।
       कुछ भी काम न आये,
            सब कुछ छूट जाता।

ये जमीं रो रही,
    आसमान रो रहा है।
        लाशों का ढेर देख कर,
             यहाँ इंसान रो रहा है।

                ✍️  *** कृष्णा शर्मा ***

ये जमीं रो रही,
आसमान रो रहा है।
लाशों का ढेर देख,
यहाँ इंसान  रो रह है।

कब्रिस्तान में भी नहीं
जगह कही खाली।
श्मसान भी रो रहे है,
कब होगी जगह खाली।

चारों तरफ अंधेरा,
सन्नाटा पसर गया है।
त्राही त्राही करता
इन्शा गुजर गया है।

तकती है निगाहें,
कोई सुकून मिलता।
सब कुछ खो गया है,
सूनी राह सूना किनारा।

मत करना घमण्ड,
काया और माया का।
कुछ भी काम न आये,
सब कुछ छूट जाता।

ये जमीं रो रही,
आसमान रो रहा है।
लाशों का ढेर देख कर,
यहाँ इंसान रो रहा है।

✍️  *** कृष्णा शर्मा ***
______
पर्यावरण

आओ मिलकर शपथ लें पर्यावरण बचाएँ हम।
चहुँओर हरियाली हो प्रकति को सुंदर बनाएँ हम।

ताजी, ठंडी, खुली हवा मिले मन में हो खुशहाली,
भारत भूमि के कण-कण में हरियाली फैलाएँ हम।

हरी-हरी धरती ये प्यारी और हरे-भरे हो खेत,
धरती की पावन मिट्टी लेकर बीज उगाएँ हम।

नव-पल्लव अंकुरित हुए कलियाँ भी खिलने लगी,
उपवन में खिले फूल और गुलज़ार सजाएँ हम।

मंद बयार चले पुरवैया सौधी-सौधी खुशबू फैले,
रंगीन है फिजायें और मौसम में बहार लाएँ हम।

पेड़ काटना बंद करो न करो प्रकति से खिलवाड़,
दस पेड़ लगाओ सभी, घर-घर अलख जगाएँ हम।

खुशनुमा वातावरण हर्षोल्लास है आज मेरा मन,
हर्षित हो झूमें मन मेरा खुशियों के गीत गाएँ हम।

✍️ सुमन अग्रवाल "सागरिका"
            आगरा
____

मेरे देश में ।

अचानक, पतझर का मौसम आ गया।
पता नही कहां से एक तुफान आ गया।
कोरोना खूद का नाम था ,उससे सबको रोना।
कितना किया जतन सबने दवाई, दारू ,टोना।
फिर भी जाने का नाम ना लेता, फूलो को गिराएं।
मसल मसल उन्हे चिल्लाएं मानव जन को हराएं।
तभी कुछ सेवा भावी ,उठ खडे हो गये।
दो दो हाथ इससे करने मानवता बचाने।
क्या शासन, और क्या प्रशासन लगे सभी मंत्रीजी
हर कही पर ऐसे जन जो रखते अच्छा तंत्रजी।
दिन रात लडने लगे, मानवो को बचाने लगे।
और ब्लेक फंगस से भी हाथ दो दो करने लगे।
तभी टाऊटे ने दिखलाया अपना बडा जोश।
पेड, पौधे, मकान धराशायी ,ऐसा किया विनाश।
पर इंसान ने प्रभू भजन मे अपने को लगाये
देख देख प्रभू भी हारे, और आशीष दे पाये ।
जाओं अब सब अच्छे से रहना इन दुष्टो को भगाता हूं।
मेरे बच्चो आज धरा पर आकर तुम्हे बचाता हूं।

✍️ ममता वैरागी तिरला धार
_____

हौसला बनाए रखना

हर  मुसीबत में हौसला बनाए रखना
उम्मीद का दीप जलाए रखना

तुफान कितना ही बड़ा हो पर दीप की
लौ को सहारा हाथों का
हो बस हौसला बनाए रखना

माना कि होता है बुरा
वक्त ये भी टल जाऐगा
हो सकता है कि
कुछ पत्ते भी झड़ जाए

पर तरूवर तटस्थ
खड़ा रहता है,जिस दिशा
का  हो तुफान बस झुक जाता है

हौसला बनाए रखता है
पंछियों के निडर बचाएं
रखता है हौसला बनाए रखता है

गिरते पड़ते तुफान से लड़ते हुए आशा
उम्मीद का दीप जलाए
रखना हौसला बनाए रखना

माना कि ग़म है जीवन में पर थोड़ी खुशीया
दामन में सजाए रखना होंसला बनाए रखना

सूख्ता दरख़्त भी हरा हो जाता है ,
पंछियों ,
राहगीरों का सहारा हो जाता है ,
जो हौसला रख
लेता है

इसलिए प्रभु पर विश्वास
रखिए मन के भीतर
आस ,रात चाहे कितनी ही
अंधियारी हो पर
हौसला  बनाए रखती है

बस विजय होगे इसी
बात पर होंसला बनाए रखिए

✍️ अर्चना जोशी
भोपाल मध्यप्रदेश
_________
विषय -" मुस्कुराकर चल मुसाफिर "
विधा-  कविता

आओ जी ले जीवन के
,ये खूबसूरत पल,
"मुस्कुराकर चल मुसाफिर '
बीत न जाए ,खुशी के ये सुनहरे पल...।
खुशियों से भर लो,  झोली पल -पल,
क्योंकि ईश्वर ने दिया है,
हमें ये स्वर्णिम पल।

सुख- दुख जीवन में, आते -जाते हैं,
खुशियों के पल तो चुराये जाते हैं..।
खुशियों से झोली ,भर लो पल- पल,
कहीं बीत न जाए ,
जीवन के ये अनमोल पल।

अविस्मरणीय होते हैं ,
खुशी के ये पल,
बड़ी कठिनाई से ,
जीवन में आते हैं ये पल।
त्योहार से लगते हैं, खुशियों के पल,
"मुस्कुराकर चल मुसाफिर" ,
मन को सुकून, देते हैं यह पल.....।

ना जाने कब गम की,
छटा छा जाएगी,
यह जीवन है ,
सुख-दुख की छाया तो आएगी।
इस छाया में क्यों ना खोजे, खुशी के पल,
तपती रेत में भटकते
,कब तक ढूंढेगे खुशी के पल।
मुस्कुराकर  चल मुसाफिर,
मुस्कुरा कर चल....।।

✍️ रंजना बिनानी "काव्या"
गोलाघाट असम
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माँ की डांट
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मां तो मां ही होती है। जब वह नहीं होती तब उसका महत्व पता चलता है। मै तो बहुत नसीब वाली हूँ मुझे एक नहीं दो मांओं के आंचल की छांव मिली मेरी ताई जिन पर कोई बच्चा नहीं था । ताई ताऊ जी दोनों साथ रहते थे ।जन्म मां ने दिया सब बच्चों को और पाला बड़ी मां ने । सबसे छोटी थी तो शैतानियां भी भरपूर होती थी । डांट पड़ती छोटी मां से तो छिप जाती बड़ी मां के आंचल में पर बड़ी मां बड़े प्यार से समझाती और सिखाती कहती बेटा ससुराल जाओगी तब यह आंचल छिपने को नहीं मिलेगा मां डांटती है तुम्हारे भले के लिये ।
         छोटी उम्र में शादी हो गयी हर बात पर दोनों  मां की याद आती क्योंकि ससुराल में भरा पूरा परिवार सास ससुर ,जेठ जिठानी ,ननद देवर सब चाहते कि उनकी हर फरमाइश पूरी करू । सारे दिन काम करती कहां अपने घर में अपने कपड़े तक नहीं धोती थी । किसी कारण मेरी छोटी मां मेरी ससुराल आई बस मेरी जिठानी ने जम कर मेरी बुराई करी । जब मां जाने को थी और मै उन्हें दरवाजे तक छोड़ने आई वह बहुत चुप और सुस्त थी । मेरी आंखों में आंसू थे क्योंकि वह जा रही थी । जाते समय वह बोली बेटा मुझे तुमसे ये उम्मीद नहीं थी कि तुम मेरा नाम डुबो दोगी मै तुम्हारी बड़ी मां से क्या कहूंगी उन्हें बहुत दुख होगा। मै पूछती रही मां मेरी गलती क्या है पर वह चली गयी । मै तो खुल कर रो भी नहीं सकती थी । पति देव को मनाया और मायके आगयी आते ही बड़ी मां के कमरे में गयी और उनकी गोदी में सर रख कर रोने लगी उन्होंने मुझे चुप कराया और कहा बेटा तुम्हारी गलती नही उन लोगो की मानसिकता छोटी है अभी तुम छोटी हो थोड़ी पाक विधा में कमजोर बस नमक मिर्च लगा कर आलोचना कर दी । दूसरे दिन दोनों मांओ ने बस प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया दो महीने में बिलकुल निपुण होगयी आज मेरे खाने की सब बहुत तारीफ करते हैं और मै अपनी दोनो मां को नमन करती हूँ । हमेशा लगता मेरे आस पास हैं । मैने अपनी दोनों बेटियो और बेटे को भी हर कार्य को सिखाया है। इतना सब होने पर 20 - 25 साल बाद भी दोनों मां को नहीं भूल पाती ।
मैने स्वर्ग तो नहीं देखा , पर मां को देखा था,
अब भी जब रात को ,थक कर लेटती हूँ,
तो सच में मां बहुत याद आती हो,
वह रात को तुम्हारा सर को सहलाना,
और डांट कर सुला देना,दिनभर बेटा थकती हो
अब आराम करो ,
अब तो मै भी मां हूँ,
पर अब कोई बेटा नहीं कहता ..

✍️ डॉ . मधु आंधीवाल
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साहित्य संगम संस्थान पश्चिम बंगाल इकाई अध्यक्षा आ. कलावती कर्वा जी को विवाह वर्षगांठ की हार्दिक शुभकामनाएं । 🙏💐🎂🎉🍰🎈🎁🌅
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"आपदा में अवसर" (लघुकथा)

वो एक बड़े अखबार में काम करता था । लेकिन रहता छोटे से कस्बेनुमा शहर में था। कहने को पत्रकार था ,मगर बिल्कुल वन मैन शो था ।
इश्तहार, खबर , वितरण , कम्पोजिंग सब कुछ उसका ही काम था । एक छोटे से शहर तुलसीपुर में वो रहता था । जयंत की नौकरी लगभग साल भर के कोरोना संकट से बंद के बराबर  थी ।
घर में बूढ़े माँ -बाप , दो स्कूल जाती बच्चियां और एक स्थायी बीमार पत्नी थी । वो खबर ,अपने अखबार को लखनऊ भेज दिया करता था ।इस उम्मीद में देर -सबेर शायद हालात सुधरें ,तब भुगतान शुरू हो।
लेकिन खबरें अब थी ही कहाँ ?
दो ही जगहों से खबरें मिलती थीं, या तो अस्पताल में या फिर श्मशान में।

श्मशान और कब्रिस्तान में चार जोड़ी कंधों की जरूरत पड़ती थी  । लेकिन बीमारी ने ऐसी हवा चलाई कि कंधा देने वालों के लाले पड़ गए।
हस्पताल से जो भी लाश आती ,अंत्येष्टि स्थल के गेट पर छोड़कर भाग जाते , जिसके परिवार में अबोध बच्चे और बूढ़े होते उनका लाश को उठाकर चिता तक ले जाना खासा मुश्किल हो जाता था ।
कभी श्मशान घाट पर चोरों -जुआरियों की भीड़ रहा करती थी ,लेकिन बीमारी के संक्रमण के डर से मरघट पर मरघट जैसा सन्नाटा व्याप्त रहता था ।
जयंत किसी खबर की तलाश में हस्पताल गया , वहां से गेटमैन ने अंदर नहीं जाने दिया , ये बताया कि पांच छह हिंदुओं का निधन हो गया है और उनकी मृत देह श्मशान भेज दी गयी है  ।

खबर तो जुटानी ही थी , क्योंकि खबर जुटने से ही घर में  रोटियां जुटने के आसार थे।सो वो श्मशान घाट पहुंच गया ।  वो श्मशान पहुंच तो गया मगर वो वहां खबर जैसा कुछ नहीं था ,जिसके परिवार के सदस्य गुजर गए थे ,लाश के पास वही इक्का दुक्का लोग थे ।
उससे किसी ने पूछा-
"बाबूजी आप कितना लेंगे "?
उसे कुछ समझ में नहीं आया । कुछ समझ में ना आये तो चुप रहना ही बेहतर होता है ,जीवन में ये सीख उसे बहुत पहले मिल गयी थी ।
सामने वाले वृद्ध ने उसके हाथ में सौ -सौ के नोट थमाते हुए कहा -
"मेरे पास सिर्फ चार सौ ही हैं ,बाबूजी । सौ रुपये छोड़ दीजिये ,बड़ी मेहरबानी होगी , बाकी दो लोग भी चार -चार सौ में ही मान गए हैं । वैसे तो मैं अकेले ही खींच ले जाता लाश को ,मगर दुनिया का दस्तूर है बाबूजी ,सो चार कंधों की रस्म मरने वाले के साथ निभानी पड़ती है। चलिये ना बाबूजी प्लीज "।

वो कुछ बोल पाता तब तक दो और लोग आ गए ,उंन्होने उसका हाथ पकड़ा और अपने साथ लेकर चल दिये।
उन सभी ने अर्थी को कंधा दिया  , शव चिता पर जलने लगा ।
चिता जलते ही दोनों आदमियों ने जयंत को अपने पीछे आने का इशारा किया । जयंत जिस तरह पिछली बार उनके पीछे चल पड़ा था ,उसी तरह फिर उनके पीछे चलने लगा ।
वो लोग सड़क पर आ गए । वहीं एक पत्थर की बेंच पर वो दोनों बैठ गए। उनकी देखा -देखी जयंत भी बैठ गया ।
जयंत को चुपचाप देखते हुये उनमें से एक ने कहा -
"कल फिर आना बाबू ,कल भी कुछ ना कुछ जुगाड़ हो ही जायेगा ।
जयंत चुप ही रहा।
दूसरा बोला -
"हम जानते हैं इस काम में आपकी तौहीन है ।हम ये भी जानते हैं कि आप पत्रकार हैं। हम दोनों आपसे हाथ जोड़ते हैं कि ये खबर अपने अखबार में मत छापियेगा , नहीं तो हमारी ये आमदनी भी जाती रहेगी। बहुत बुरी है , मगर ये हमारी आखिरी रोजी है । ये भी बंद हो गयी तो हमारे परिवार भूख से मरकर इसी श्मशान में आ जाएंगे। श्मशान कोई नहीं आना चाहता बाबूजी , सब जीना चाहते हैं ,पर सबको जीना बदा हो तब ना "।
जयंत चुप ही रहा ।वो कुछ समझ ही नहीं पा रहा था कि क्या उसने कर दिया ,क्या उसके साथ हो गया ?
दूसरा व्यक्ति धीरे से बोला -
"हम पर रहम  कीजियेगा बाबूजी ,खबर मत छापियेगा,आप अपना वादा निभाइये ,हम अपना वादा निभाएंगे । जो भी मिलेगा ,उसमें से सौ रुपए देते रहेंगे आपको फी आदमी के हिसाब से "।

जयंत ने नजर उठायी , उन दोनों का जयंत से नजरें मिलाने का  साहस ना हुआ ।
नजरें नीची किये हुए ही उन दोनों ने कहा -

"अब आज कोई नहीं आयेगा, पता है हमको। चलते हैं साहब , राम -राम "।

ये कहकर वो दोनों चले गए,थोड़ी देर तक घाट पर मतिशून्य बैठे रहने के बाद  जयंत भी शहर की ओर चल पड़ा।
शहर की दीवारों पर जगह -जगह इश्तिहार झिलमिला रहे थे और उन इश्तहारों को देखकर उसे कानों में एक ही बात गूंज रही थी ,
"आपदा में अवसर"।
समाप्त

Written by
Dilip kumar।  Email-jagmagjugnu84@gmail.com

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* दिवंगत जैन मुनि तरुण सागर जी द्वारा रचित कविता "आदमी की औकात  "*

जब राष्ट्र संत तरुण सागर जी बालाघाट प्रवचन कार्यक्रम में पधारे थे तभी उनकी दिव्य प्रेरणा से मैने विश्व मे पहली बार मां वैनगंगा जी पर संस्कृत में अष्टक, स्त्रोत एवम हिंदी में मां वैनगंगा जी की चालीसा एवम मां वैनगंगा जी की आरती का सृजन किया था ।माँ वैनगंगा अष्टक, स्त्रोत एवम आरती का विमोचन भी तरुणसागर जी के कर कमलों स्थानीय दादा बाड़ी वारासिवनी के कक्ष में समारोहपूर्वक सम्पन्न हुआ था ।उनकी चरण सेवा का सौभाग्य भी मुझे प्रत्यक्ष प्राप्त हुआ ।मेरी लेखनी की दशा और दिशा दोनों ही परिवर्तित का दी महान विभूति आचार्य तरुण सागर जी महाराज ने ।किसे पता था कि उनसे यह पहली और अंतिम भेंट है ।उसके कुछ वर्षों पश्चात ही आप निर्वाण को प्राप्त हुए ।अदभुत व्यक्तित्व के विशाल  ज्ञान के सागर की एक कविता अवश्य ही पढ़िए और आत्म सात कीजिये ।।
सादर विनय सहित
प्रणय श्रीवास्तव ",अश्क "
कवि, व्यंग्यकार साहित्यकार
वारासिवनी जिला बालाघाट से ।।
*फिर घमंड कैसा*
घी का एक लोटा,
लकड़ियों का ढेर,
कुछ मिनटों में राख.....
बस इतनी-सी है

   *आदमी की औकात !!!!*

एक बूढ़ा बाप शाम को मर गया,
अपनी सारी ज़िन्दगी,
परिवार के नाम कर गया,
कहीं रोने की सुगबुगाहट,
तो कहीं ये फुसफुसाहट....
अरे जल्दी ले चलो
कौन रखेगा सारी रात.....
बस इतनी-सी है

       * आदमी की औकात !!!!*

मरने के बाद नीचे देखा तो
नज़ारे नज़र आ रहे थे,
मेरी मौत पे.....
कुछ लोग ज़बरदस्त,
तो कुछ ज़बरदस्ती
रोए  जा रहे थे।
नहीं रहा........चला गया.....
दो चार दिन करेंगे बात.....
बस इतनी-सी है

     *आदमी की औकात!!!!*

बेटा अच्छी सी तस्वीर बनवायेगा,
उसके सामने अगरबत्ती जलायेगा,
खुश्बुदार फूलों की माला होगी....
अखबार में अश्रुपूरित श्रद्धांजली होगी.........
बाद में शायद कोई उस तस्वीर के
जाले भी नही करेगा साफ़....
बस इतनी-सी है
    *आदमी की औकात ! ! ! !*

जिन्दगी भर,
मेरा- मेरा- किया....
अपने लिए कम ,
अपनों के लिए ज्यादा जिया....
फिर भी कोई न देगा साथ.....
जाना है खाली हाथ....
क्या तिनका ले जाने के लायक भी,
होंगे हमारे हाथ ???  बस
*ये है हमारी औकात....!!!!*

*जाने कौन सी शोहरत पर,*
*आदमी को नाज है!*
*जो आखरी सफर के लिए भी,*
*औरों का मोहताज है!!!!*

*फिर घमंड कैसा ?*

*बस इतनी सी हैं*
*हमारी औकात...*
दिव्य ओजस्वी विश्व
सुधारक संत तरु सागर
जी को शत शत नमन ।।

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प्रतिबिंब

  एक छोटा शहर था जिसमें एक सत्यजीत नामक लड़का रहता था । सत्यजीत दिखने में सांवला और उंचाई औसत बच्चों से ज्यादा, लोग प्यार से उसे सत्या कहते थे । सत्या पढने लिखने में होशियार था और खेलकुद में भी अव्वल। अपनी बात मनवानी खुब आती थी,अच्छी आवाज का भी मालिक था। धीरे धीरे वह बडा होने लगा, बाकी दो भाई और दो बहनें पढनेलिखने में ज्यादा तेज नहीं थे, इस वजह से भी सत्या का सम्मान घर में ज्यादा था। काॅलेज में था तब उसकी शादी राजश्री से हो गई। समय जैसे पंख लगाकर उडने लगा, सत्या एक प्राइवेट कंपनी में मॅनेजर की पोस्ट पर नियुक्ती हो गई।
 
            अपने काम में बहुत ही होशियार सत्या ने सबको खुश कर दिया, आफिस में कोई भी प्रोब्लेम हो, सत्या उसे चुटकीयों में हल कर देता। आफिस में कोई प्रोग्राम हो तो उसकी जिम्मेदारी बहिर्मुखी व्यक्तित्व के स्वामी सत्या की होती थी । ओलराऊन्डर सत्या के स्वभाव में एक हि कमी थी उसका गुस्सा, उसे गुस्सा बहुत ही जल्दी आ जाता था और उसके गुस्से के सामने कोइ ठहर भी नहीं पाता था। शादि के चार साल बाद उसके घर एक बेटा पैदा हुआ ऊसका नाम रवि रखा । सत्या ने सोचा उसका बेटा उसके गुण लेके ही पैदा हुआ है। लेकीन सत्य उससे विपरित था, रवि अंतःमुखी, शांत स्वभाव और खेलकुद में औसत था, सिर्फ एक बात में अपने पिता की तरह था वह थी पढाई लिखाई । वो क्लास में हमेशा अव्वल आता था, लेकीन उसे अपने पिता से कभी शाबाशी नहीं  मील पाई । सत्या हमेशा रविमें खुद को देखना चाहता था, उसके जैसा आत्मविश्वास, निर्णायकता, लेकीन रवि में इन सब गुणो की कमी थी ।
 
            रवि न तो अपने निर्णय ले पाता था न ही उसमें कोइ काम करने का आत्मविश्वास होता था। ईसी वजह से ऊसे सत्या से हमेशा डांट पडती, ऊसका सहारा थी ऊसकी मां राजश्री। राजश्री समझती थी अपने बेटे को लेकीन सत्या के गुस्से के आगे वो बेबस थी ।सत्या के गुस्से की वजह से रवि के आत्मविश्वास में और कमी आ गई, वह हमेंशा इस उधेडबुन में लगा रहता किस तरह पापा को खुश करे और उन्हें गुस्सा न आए । फिर ये उसके स्वभाव में आ गया की सबको खुश कैसे रखा जाए और कोइ उससे नाराज न हो जाए , कोइ दोस्त उससे नाराज हो जाए तो वो उसे मनाने लगता माफी मांगने लगता फिर चाहे गलती उसके दोस्त की हि क्यों न हो।
 
            धीरे धीरे रवि की छबी कमजोर व्यक्ति की हो गई, सब उसे प्यार की बजाय उससे हमदर्दी दिखाने लगे. रवि अपनी दुनिया में जीने लगा, उसने खुश रहने का अपना तरीका इजाद कीया. कोई उसे कुछ कहता-सुनाता तो बुरा नहि मानता, जो चीज हुइ नहि उसकी कल्पना करता और खुश रहता ।.वो जानता था की वो सब उसकी कल्पना है ।
 
 
            वैसे रवि की अनिर्णायकता में सबसे बडा हाथ सत्या का था । रवि ने कपडे कैसे पहनने चाहिए , बाल कैसे कटवाने चाहिए , किस से बात करनी चाहिए किससे नहि हर बात का फैसला सत्या करता था । एक दिन कीसी लडकी से बात करता दिख गया और मानो कयामत आ गई। उस दिन रवि को बहुत डांट पड़ी उस दिन से वह लडकियों से बात करने से कतराने लगा . ऐसा नहिं था की सत्या को रवि से प्यार नहिं था, लेकीन उसे मजबूत बनाने के लिए कठोरता से पेश आता था ।
 
            लेकीन रवि के लिए यह सब बेमानी था , उसे सिर्फ यह बात समझमें आती थी की न जाने कब उसे डांट पड जाए । पढनेलिखने में होशियार होने की वजह से क्लास में अव्वल तो आता था लेकीन शिक्षकों में प्रिय नहीं था। हमेशा दुसरों की स्टाइल कोॅपी करता मानो उसका खुद का कोइ अस्तित्व ही न हो । अच्छे मार्कस की वजह से उसे बी. फ़ार्म . में एडमिशन मिल गया, लेकीन वहां भी उसका वही हाल रहा न कोई दोस्त, न किसी से बात करना । रवि खुलने की बजाय और अंतःमुख होता गया ।
 
            हाल ये था की आधे से ज्यादा विद्यार्थी यह नहीं जानते थे की उनके क्लास में रवि नाम का कोइ लडका भी है। पढाई पुरी करने के बाद उसने एक फार्मा कंपनी में मार्केटिंग रिप्रेझेन्टेटीव की जाॅब ले ली। जो काम उसके स्वभाव के विरुद्ध दिशा का था, उसमें मन कैसे रमता ? न हि काम में उसे आनंद आता न ही अपने टार्गेट पुरे कर पाता था । हमेंशा डांट पडती थी, आखिर एक दिन उसे काम से निकाल दिया गया । घर में सत्या से भी डांट मीली । सत्या के दोस्त राजशेखर ने रवि को अपनी कंपनी में जाॅब दे दि । यह नौकरी भी रवि की पसंद की नहीं थी, लेकीन सॅलेरी अच्छी होने की वजह से टिका रहा।
 
            यहां उसकी मुलाकात भावना और परिक्षित से हुई । रवि अगर पुर्व था तो यह दोनों पश्चिम, लेकीन रवि से उनकी दोस्ती हो गई . परिक्षित 6 फीट 3 इंच की लंबाई, चौडा सीना, मनमोहक मुस्कान और मधुर आवाज का स्वामी। भावना छरहरा बदन, गोरा रंग और मीठी जबान की मालकीन । इनसे दोस्ती होना रवि की खुशनसीबी ही थी। इससे पहले रवि की दोस्ती सिर्फ किताबों से ही रही थी । इन दोनों ने रवि में क्या देखा की रवि पर जान छिडकने लगे । रवि को सही मायने में पहली बार समझी वह भावना थी।
 
            सबसे पहला काम भावना ने कीया वह था उसमें खोया हुआ आत्मविश्वास जगाना । कभी समझाकर तो कभी डांटकर धीरेधीरे रवि के अंदर आत्मविश्वास को भावना ने जागृत कर दिया। पहले कोई भी उसे कभीभी डांट दिया करता, लेकीन अब वो जवाब देना सीख गया था। ऐसा नहीं था की पहले जवाब दिमाग में नहीं आते थे लेकीन वह किसी को नाराज नहीं करना चाहता था। लेकीन वह अब समझ गया था की आत्मसम्मान खोकर कीसी को खुश रखना गलत है, ऐसा सिर्फ अपने मातापिता के साथ करना ठीक है, मातापिता कुछ कहे तो कैसा मान अपमान ।
 
            अब तो मानो शेर पिंजरे से बाहर आ गया था, सभी इस परिवर्तन से चकित थे और कुछ तो खौफजदा थे, खासकर मॅनेजर राघव . क्योंकी जिस तेजी से रवि बढ रहा था उसे अपनी कुर्सी खतरें नजर आने लगी । रवि के अंदर अचानक आया हुआ परिवर्तन उसे समझ में नहीं आया । आखिर एक दिन रवि को मॅनेजर बना दिया गया । रवि ने घर पर दी हुई पार्टी में भावना और परिक्षित को बुलाया। उस पार्टी में पहली बार सत्या ने सबके सामने रवि की पीठ ठोकी और कहा,"आय एम प्राउड ओफ यु माय सन।" इस पल के लिए रवि न जाने कीतने साल से तरस रहा था।
 
            यह बात सुनकर भावना का बांध फूट पडा," अंकल, क्या सफलता हि सब कुछ है ? पैसा हि सबकुछ है? आपने हमेंशा अपने बेटे में खुद को देखने की कोशिश की ।  लेकीन उसका एक अलग व्यक्तित्व है आपका प्रतिबिंब नहीं यह बात आप भुल गए, आपने उसके अंदर इतनी कुंठा भर दी की वह अपने आप को खो बैठा था । न वो रवि बन सका न हि सत्या , आप बच्चो पर खुद को थोपना बंद करे । जैसा भी हो सफल या असफल उस पर नाझ करें । हर व्यक्ति परिपूर्ण नहीं होता लेकीन हर एक में कोई न कोई गुण जरुर होता है, उस गुण को पहचानकर आगे बढनें मदद करें।"
 
            अब सत्या को अपनी गलती का एहसास हो गया था उसने रवि को अपने आगोश में ले लिया और दोनों देर तक रोते रहे.

✍️ ज्योतिन्द्र मेहता, पालघर

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साहित्य एक नज़र 🌅 , अंक - 9
बुधवार , 19/05/2021
कोलकाता से प्रकाशित होने वाली दैनिक पत्रिका

अंक - 9

साहित्य एक नज़र
( कोलकाता से प्रकाशित होने वाली दैनिक पत्रिका )

🌅 साहित्य एक नज़र  🌅
Sahitya Eak Nazar
19 May , 2021 , Wednesday
Kolkata , India
সাহিত্য এক নজর

अंक - 9
19 मई 2021
   बुधवार
वैशाख शुक्ल 7 संवत 2078
पृष्ठ -

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अंक  - 9

अंक - 9
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कविता :- 20(02), वृहस्पतिवार , 20/05/2021
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