साहित्य एक नज़र 🌅 अंक - 22 , मंगलवार , 01/06/2021

साहित्य एक नज़र 🌅
अंक - 22





साहित्य एक नज़र

अंक - 22

🌅 साहित्य एक नज़र 🌅
कोलकाता से प्रकाशित होने वाली दैनिक पत्रिका

अंक - 22
1 जून  2021
मंगलवार
ज्येष्ठ कृष्ण 6 संवत 2078
पृष्ठ -  1
प्रमाण पत्र -  12 - 14
( आ. डॉ. मंजु अरोरा जी ,)
समीक्षा स्तम्भ
आ. श्रीमती सुप्रसन्ना झा जी
आ.श्री अनिल राही जी )
कुल पृष्ठ - 15

साहित्य एक नज़र  🌅 , अंक - 22
Sahitya Ek Nazar
1 June 2021 ,  Tuesday
Kolkata , India
সাহিত্য এক নজর
अंक - 22
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आहुति
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आहुति पुस्तक
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अंक - 21
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अंक 20
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सम्मान पत्र - साहित्य एक नज़र
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अंक - 19 से 21   -

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अंक - 22 से 24 तक के लिए इस लिंक पर जाकर सिर्फ एक ही रचना भेजें -
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समस्या होने पर संपर्क करें - 6290640716

आपका अपना
✍️ रोशन कुमार झा

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कविता :- 20(11)

http://roshanjha9997.blogspot.com/2021/05/2011-29052021-19.html
अंक - 19
http://vishnews2.blogspot.com/2021/05/19-29052021.html

कविता :- 20(12)
http://roshanjha9997.blogspot.com/2021/05/2012-30052021-20.html

http://roshanjha9997.blogspot.com/2021/05/2004-22052021-12.html

अंक - 20

अंक 20
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http://vishnews2.blogspot.com/2021/05/20-30052021.html

कविता :- 20(13)
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अंक - 21

http://vishnews2.blogspot.com/2021/05/21-31052021.html

अंक - 22
http://vishnews2.blogspot.com/2021/05/22-01062021.html

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अंक - 23
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http://roshanjha9997.blogspot.com/2021/05/2015-02062021-23.html

अंक - 24
http://vishnews2.blogspot.com/2021/05/23-03062021.html

http://roshanjha9997.blogspot.com/2021/05/2016-03062021-24.html



1.

गीत रचना,,,,, स्मृतियों ने पंख लगाए
गीतकार,,,,,,,,, डॉक्टर देवेंद्र तोमर
गीत -
स्मृतियों ने पंख लगाए

स्मृतियों ने पंख लगाए
उड़कर पहुंची सागर पार
सूखी आंखें लेकर लौटीं
अपने संग में आंसू  चार।
पता नहीं किस कौन घड़ी में
मस्त मगन वो मन आवारा
सप्तम स्वर मै गा बैठा था
बिना साज के गान तुम्हारा
लगा कि संगत मिल जाएगी
मेरे स्वर को कभी तुम्हारी
लेकिन हाय अभागी किस्मत
मेरी हर कोशिश में हारी
बाधाएं बन गई दिशाएं
पड़ी समय की ऐसी मार।
सूखी आंखें लेकर लौटीं
अपने संग में आंसू  चार।
कभी ढूंढते कभी मनाते
तुमको बीता मेरा जीवन
बचपन फिर तरुणाई बीती
बीत गया फिर सारा यौवन
पग पग पड़ी जरूरत मुझको
चाहा थामूं हाथ तुम्हारा
बीच अकेलेपन के रहकर
सोचा मांगू साथ तुम्हारा
किंतु तुम्हारा रखा हुआ था
पास किसी के  गिरवी प्यार।
सूखी आंखें लेकर लौटीं
अपने संग में आंसू चार।
बहुत कटी जो शेष बची है
शायद वह भी कट जाएगी
स्मृति मन के पटल तुम्हारे
छवि अंकित भी हट जाएगी
बिसरा दोगी प्रेम पंथ के
कांटों पर तुम मेरा चलना
पल पल में अंगारित होना
क्षण क्षण बनकर बर्फ पिघलना
चलो शिकायत अब क्या करना
मुझे छोड़ना है संसार।
सूखी आंखें लेकर लौटीं
अपने संग में आंसू चार।
जैसे तैसे हाय उमरिया
बीती बूढ़ी होती काया
रिश्तों के इस धरा गगन में
जैसे एक अंधेरा छाया
लिखते लिखते अजब कथानक
मोड़ ले गई गजब कहानी
चोट लगी थी कभी कहीं जो
होकर उठती पीर सयानी
कोई मरहम वेद्य चिकित्सक
करे न कोई भी उपचार।
सूखी आंखें लेकर लौटीं
अपने संग में आंसू चार।
स्मृतियों ने पंख लगाए
उड़कर पहुंची सागर पार
सूखी आंखें लेकर लौटीं
अपने संग में आंसू चार।

✍️ डॉक्टर देवेंद्र तोमर
अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष
विश्व साहित्य सेवा संस्थान

2.

ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय ( लनमिवि )  ( एलएनएमयू ) दरभंगा के स्नातक द्वितीय वर्ष विषय नोन हिन्दी की प्रश्न -
महाकवि आरसी प्रसाद सिंह जी की संजीवनी
संजीवनी (संजीविनी) की कथावस्तु का संक्षेप में वर्णन कीजिए ।
संजीविनी’ खण्ड-काव्य की संक्षिप्त कथा प्रस्तुत कीजिए ।

https://hindi.sahityapedia.com/?p=132763
महाकवि आरसी प्रसाद सिंह जी की संजीवनी

महाकवि आरसी प्रसाद सिंह जी
( Great poet Arsi Prasad Singh, )
विषय :- संजीवनी
कच और देवयानी की प्रेम कथा
वृहस्पति :- कच का पिता , देवताओं के गुरु
शुक्राचार्य :- देवयानी की पिता , राक्षसों के गुरु , कच का गुरु

जन्म- 19 अगस्त, 1911 ई., बिहार
मृत्यु- 15 नवंबर, 1996

आरसी प्रसाद सिंह का जन्म 19 अगस्त, 1911 को बिहार के मिथिलांचल के समस्तीपुर जिला में रोसड़ा रेलवे स्टेशन से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित बागमती नदी के किनारे एक गाँव ‘एरौत’ (पूर्व नाम ऐरावत) में हुआ था। यह गाँव महाकवि आरसी प्रसाद सिंह की जन्मभूमि और कर्मभूमि है, इसीलिए इस गाँव को “आरसी नगर एरौत” भी कहा जाता है।।
अपनी शिक्षा पूर्ण करने के बाद आरसी प्रसाद सिंह की साहित्य लेखन की ओर रुचि बढ़ी। उनकी साहित्यिक रुचि एवं लेखन शैली से प्रभावित होकर कवि रामवृक्ष बेनीपुरी ने उन्हें “युवक” समाचार पत्र में अवसर प्रदान किया। बेनीपुरी जी उन दिनों ‘युवक’ के संपादक थे। ‘युवक’ में प्रकाशित रचनाओं में उन्होंने ऐसे क्रांतिकारी शब्दों का प्रयोग किया था कि तत्कालीन अंग्रेज़ हुकूमत ने उनके ख़िला़फ गिरफ़्तारी का वारंट जारी कर दिया था।
भारत के प्रसिद्ध कवि, कथाकार और एकांकीकार थे। छायावाद के तृतीय उत्थान के कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले और ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित आरसी प्रसाद सिंह को जीवन और यौवन का कवि कहा जाता है। बिहार के श्रेष्ठ कवियों में इन्हें गिना जाता है। आरसी प्रसाद सिंह हिन्दी और मैथिली भाषा के ऐसे प्रमुख हस्ताक्षर थे, जिनकी रचनाओं को पढ़ना हमेशा ही दिलचस्प रहा है। इस महाकवि ने हिन्दी साहित्य में बालकाव्य, कथाकाव्य, महाकाव्य, गीतकाव्य, रेडियो रूपक एवं कहानियों समेत कई रचनाएँ हिन्दी एवं मैथिली साहित्य को समर्पित की थीं। आरसी बाबू साहित्य से जुड़े रहने के अतिरिक्त राजनीतिक रूप से भी जागरूक एवं निर्भीक रहे। उन्होंने अपनी लेखनी से नेताओं पर कटाक्ष करने में कोई कमी नहीं छोड़ी थी। 15 नवंबर, 1996 में इनकी मृत्यु हो गई ।

प्रश्न :- संजीवनी (संजीविनी) की कथावस्तु का संक्षेप में वर्णन कीजिए ।
संजीविनी’ खण्ड-काव्य की संक्षिप्त कथा प्रस्तुत कीजिए ।

संजीवनी (संजीविनी) एक खण्ड काव्य है । इसकी कथा नौ सर्गो में है । राष्ट्रीय भावना से भरा हुआ कविवर आरसी ने कच और देवयानी की पौराणिक कथा का आधार बनाकर आधुनिक भारत की समस्याओं का स्पर्श किया है । आज का हमारा अधिकांश युवकों प्यार के लिए सब कुछ कर सकता , पर प्यार को त्याग नहीं सकता ।

देवासुर (देवता और राक्षस) संग्राम की कथा बहुत प्राचीन है । देवता और दानवों में हमेशा संघर्ष होता रहा है । देवताओं ने बार – बार दानवों (राक्षसों) को हराया , पर दानव हारकर भी पुनः दुगना शक्ति से युद्ध में लग जाते । कारण यह था कि राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य को संजीविनी विद्या का ज्ञान था और उसी शक्ति से वे राक्षसों को पुनः जीवित कर देते थे । देवराज इन्द्र चिन्तित थे। देवताओं के समक्ष (सामने) एक गम्भीर समस्या उपस्थित थीं । सभा में सभी देवता मौन थे । उनकेे गुरु वृहस्पति ने उनकी समस्या का समाधान किया कि यदि कोई देव-पुत्र राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य को प्रसन्न कर ले और उनसे संजीविनी विद्या का ज्ञान प्राप्त कर लें तभी कुशल (अच्छा) है । पर राक्षसों के राज्य में जाने के लिए कोई तैयार नहीं था । तभी वृहस्पति का तेजवान पुत्र कच खड़ा हुआ – सारी कठिनाइयों और आपत्तियों को झेल कर शुक्राचार्य से विद्या प्राप्त करने के लिए मैं जाऊंगा । कच को प्रस्तुत देखकर इन्द्र चौंक पड़े और बोले ‘सौम्य ! यहां यम , कुबेर आदि दिकपाल जैसे वीर शिरोमणि खड़े हैं , फिर भला तुम क्यों उस आग की लपटों में जाओगे ? उसने बड़े उत्साह से कहा कि ‘पूज्य पिता का आशीर्वाद हो , सुर – संसद की कृपा हो तो मैं गुरु-सेवा में आत्मसमर्पण कर दूंगा , संजीविनी सीख कर आऊंगा और औरों को सिखलाऊंगा । वृहस्पति बोले – जाओ तात् ! (बेटा) गुरु- प्रसाद से ही विद्या प्राप्त होती है । इस प्रकार देवलोक से गुरु-जनों का आशीष ग्रहण कर कच ने प्रस्थान किया ।
नगर के कोलाहल से दूर शान्त तमसातट पर तपोवन के एक एकान्त आश्रम में शुक्राचार्य रहते थे । जब कच वहां पहुंचा तो उस समय उनकी पुत्री देवयानी से उसकी भेंट हुई । कच ने गुरु से भेंट करने की प्रार्थना की तथा अपना प्रयोजन भी बतलाया । देवयानी के हृदय में उसके प्रति प्रेम उत्पन्न हुआ। उसनेे समुचित सत्कार किया तथा कच को आश्वासन दिया कि उसका मनोरथ अवश्य ही पूर्ण होगा । कच गुरु शुक्राचार्य के चरणों पर विनीत हुआ तथा उनका शिष्य बनने की चाह प्रकट की । कच की भक्ति से प्रभावित होकर शुक्राचार्य संतुष्ट हुए । उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया और अपना शिष्य बना लिया। दस – शत वर्षों तक ब्रह्राचर्य-व्रत का संकल्प लेकर कच उनका शिष्य बन गया और एक योग्य , कुशल शिष्य की तरह गुरु के चरणों का आशीर्वाद तथा निश्छल हृदय देवयानी का स्नेह पाकर अपनी साधना में जुट गया । वह कठोर श्रम करता – गुरु की आज्ञा और साधना की धूप से न तो वह विचलित होता और न देवयानी के प्रेम की चाँदनी से चंचल ही होता । साधना के पथ पर अविचलित , अविश्रान्त भाव से वह गतिशील था ।

इधर कच के प्रति राक्षसों में कौतूहल जगा । गुरु शुक्राचार्य के भय से वे प्रत्यक्षत: कुछ कर नहीं पाते थे ‌। उनके हृदय में घृणा और विद्वेष का दावानल दहक रहा था । एक दिन एकान्त पाकर दनुज के बालकों ने स्नेह का छल बिछाकर कच से सारी बातें जान ली । निष्कपट कच कुछ छिपा नहीं पाया , और तब दुष्ट-दानव बालकों ने उसे मार डाला । संध्या हो जाने पर भी जब कच आश्रम नहीं लौटा तब देवयानी का हृदय शंका और त्रास से भर उठा ‌ उसके हृदय में कच के प्रति निश्छल प्यार पनप चुका था । वह विफल होकर अपने पिता के पास पहुंची और अत्यन्त आतुर भाव से अपने भय का निवेदन किया ‌ । शुक्राचार्य अपनी पुत्री को अत्यधिक प्यार करते थे ‌। उन्होंने दिव्य मंत्रोच्चार किया तथा कच का आह्वान किया । दूर दूर तक उनका स्वर प्रतिध्वनित हो उठा और उत्तर के रूप में सुदूर देश में कच की आवाज़ सुनाई पड़ी। कच पुनरुज्जीवित होकर संदेह उपस्थित हो गया । देवयानी के अश्रु पुरित नैन खुशी से नाच उठे । कच से पूरी कहानी सुनकर शुक्राचार्य ने उसे सावधानी से रहने की सीख दी । देवयानी ने संकल्प किया कि
वह भविष्य में कच को अकेले वन में नहीं जाने देगी । साधना का रथ फिर बढ़ चला । पर राक्षसों के बीच खलबली मच गई थी । उनका द्वेष बढ़ता गया और वे किसी उपयुक्त अवसर की खोज में थे । कच पूजा हेतु जब मधुबन से फूल चुन रहा था राक्षसों ने उसे पुनः मार डाला और अस्थि – मांस को पीस कर जल की धारा में विसर्जित कर दिया । एक बार फिर देवयानी के आकुल अंतर को , स्नेह – शिथिल हृदय को शांति तथा उल्लास देने हेतु गुरु शुक्राचार्य ने कच को जीवित कर दिया ।

एक दिन राजभवन के किसी उत्सव में गुरु और देवयानी दोनों गये हुए थे । कच आश्रम में अकेले था । राक्षसों ने छल का सहारा लिया । कच को लगा मानो आश्रम की गाय बाहर भय से चिल्ला रही हो । वह अस्त्र लेकर गौ रक्षा के लिए बाहर निकला । राक्षसों को अवसर मिला । उन्होंने उसे मार डाला तथा अस्थि – मांस को जलाकर गुरु के पेय में मिला दिया । बिना किसी आशंका की कल्पना किए हुए गुरु उसे पी गये ।

रात में जब शुक्राचार्य और देवयानी आश्रम आये तो कच का कहीं पता नहीं था । एक अज्ञात भय से देवयानी सिहर उठी । मन की समस्त पीड़ाओं को वाणी देकर , वह पिता के समक्ष (सामने) गिड़गिड़ाने लगी । उसकी कातर वेदना-युक्त आग्रह ने एक बार पुनः शुक्राचार्य को कच को जीवित करने के लिए विवश कर दिया । उन्होंने फिर मंत्रोच्चारण किया। पर गुरु के उदर में स्थित कच बाहर निकलने के विषय में धर्म संकट में पड़ा हुआ था। ( लोक लाज) गुरु का पेट चीर कर निकलने का अर्थ होता गुरु की मृत्यु और कच को यह सोचना भी अभीष्ट नहीं था। अन्त में देवयानी का अत्याधिक अग्रह देखकर गुरु ने कच को वहीं ( पेट के अंदर ही ) संजीविनी विद्या का ज्ञान दिया । कच बाहर निकला और फिर उसी मंत्र के सहारे गुरू को भी जीवित कर दिया । साधना की सिद्धि के अवसर पर कच ने गुरु के चरणों पर सिर रख दिया । स्नेह – शिथिल गुरु ने उसे अपने पुत्र की समकक्षता दी तथा उसे जी भर आशीर्वाद दिया ।

उद्देश्य – पूर्ति के पश्चात जब एक बार कच ने देवलोक जाने का निश्चय किया तो देवयानी ( गुरु की पुत्री ) ने उस पर प्रेम प्रकट करके उससे रुक जाने की प्रार्थना की । कच ने अपने कर्त्तव्य पालन की बात कहकर देवयानी की प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया , साथ ही यह बात भी स्पष्ट कर दी कि भगिनी के रूप में गुरु- सुता ( गुरु की पुत्री ) से वह विवाह की बात भी नहीं सोच सकता । अन्त में निराश होकर देवयानी ने कच को शाप दे दिया कि संजीविनी ( संजीवनी) विद्या कच के काम नहीं आएगी । कच ने भी देवयानी के क्रोध को अनुचित बताकर उसे किसी क्षत्रिय की पत्नी बनने का शाप दे दिया । तदोपरान्त कच ने देवलोक जाकर संजीवनी विद्या का प्रसार कर देवताओं में उत्साह भर दिया और देवताओं ने धर्म- युद्ध में तत्पर होकर दानवों को परास्त कर दिया , स्वर्ग लोक में सुख और शांति छा गई । ‘संजीविनी का यही कथानक है ।

28/02/2021 , रविवार , कविता :- 19(21)
✍️ रोशन कुमार झा , Roshan Kumar Jha , রোশন কুমার ঝা
मोबाइल / व्हाट्सएप , Mobile & WhatsApp no :- 6290640716
Service :- 24×7
सेवा :- 24×7
https://hindi.sahityapedia.com/?p=132763

https://youtu.be/nOezgLN4Rvg


अंक - 22
🌅 साहित्य एक नज़र 🌅
कोलकाता से प्रकाशित होने वाली दैनिक पत्
अंक - 22
1 जून  2021
मंगलवार
ज्येष्ठ कृष्ण 6 संवत 2078
पृष्ठ - 
प्रमाण पत्र -  12 - 14
( आ. डॉ. मंजु अरोरा जी ,)
समीक्षा स्तम्भ
आ. श्रीमती सुप्रसन्ना झा जी
आ.श्री अनिल राही जी )
कुल पृष्ठ - 15


3.
खुशखबरी ! खुशखबरी ! खुशखबरी !

माँ सरस्वती, साहित्य एक नज़र दैनिक पत्रिका मंच को नमन 🙏 करते हुए आप सभी सम्मानित साहित्य प्रेमियों को सादर प्रणाम 🙏💐।

साहित्य एक नज़र दैनिक पत्रिका  "पुस्तक समीक्षा स्तम्भ" में चयनित पुस्तकों के लेखकों की सूची जससे साहित्कारों को समीक्षा प्रमाण पत्र दिया जा सके जून 2021 माह के लिए केवल 60 स्थान है ।

1. आ. श्री रामकरण साहू "सजल" बबेरू (बाँदा) उ.प्र.
2. आ. अजीत कुमार कुंभकार
3.आ. राजेन्द्र कुमार टेलर "राही" नीमका , राजस्थान
4.निशांत सक्सेना "आहान" लखनऊ
5. आ. कवि अमूल्य रतन त्रिपाठी
6. आ. डॉ. दीप्ती गौड़ दीप ग्वालियर
7. आ. अर्चना जोशी जी भोपाल मध्यप्रदेश
8. आ. नीरज सेन (कलम प्रहरी) जी कुंभराज गुना ( म. प्र.)
9. आ. सुप्रसन्ना झा जी , जोधपुर  ✓
10. आ.  श्री अनिल "राही" जी  ✓

नोट:- कृपया अपना नाम जोड़ने का कष्ट करें कृपया सहयोग राशि 30/- रुपये इसी नम्बर 9753877785 पर फ़ोन पे/पेटीएम/गूगल पे करकें स्क्रीन शॉट भेजने का कष्ट करें।

आपका अपना
किताब भेजने का पता
प्रमोद ठाकुर
महेशपुरा, अजयपुर रोड़
सिकंदर कंपू,लश्कर
ग्वालियर
मध्यप्रदेश - 474001
9753877785
रोशन कुमार झा

4.

🌅 साहित्य एक नज़र 🌅
कोलकाता से प्रकाशित होने वाली दैनिक पत्रिका

🏆 सम्मान - पत्र 🏆

प्र. पत्र . सं - _ 013  दिनांक -  _  01/06/2021

🏆 सम्मान - पत्र 🏆

आ.  _   डॉ. मंजु अरोरा  _  जी

ने साहित्य एक नज़र , कोलकाता से प्रकाशित होने वाली दैनिक पत्रिका अंक  _  1 - 22  _   में अपनी रचनाओं से योगदान दिया है । आपको

         🏆 🌅 साहित्य एक नज़र रत्न 🌅 🏆
सम्मान से सम्मानित किया जाता है । साहित्य एक नज़र आपके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता है ।

रोशन कुमार झा   , मो :- 6290640716

आ. प्रमोद ठाकुर जी
अलंकरण कर्ता - रोशन कुमार झा

_____________________________

5.

नाम-   श्रीमती सुप्रसन्ना झा
जन्म-  बिहार,  सहरसा
वर्तमान- जोधपुर, राजस्थान
शिक्षा-   हिंदी ग्राइज्वेशन 
           (वीमेंस कालेज)  सहरसा
         बिहार , यूनिवर्सिटी
            म्यूजिक प्रभाकर
         इलाहाबाद ,यूनिवर्सिटी
          2009 से 2016 तक
            ( अध्यापन कार्य)
                भरतनाट्यम
                 (संचालिका)
      बासनी ब्रांच, सरस्वती नगर,
            जोधपुर , राजस्थान।

सम्मानित रचना
1.जय माँ
2.संकल्प
3.स्वपरिचय
4.वैशाखी
5.हम-तुम
6.हे कंत!
तुम बिन
मेरे वसंत

अप्रकाशित कहानी
1. जिंदगी का सफर
2.तेरा अक्स चाँद मे
3.परिचय
4.तेरा आशियाना
5.वो आंटी  
भावांजलि (कविता संग्रह)

--------------------

रचना - "वेदना"

कोरोना हैं डरावना,
हर दिशा में हो रहा उठावना।
ऐसे में किसका मन न होगा
विकल।
पल - पल सुनकर मौत
सुनकर मौत की ख़बर,
लगता बड़ा भयावना।
नहीं, नहीं, होता नहीं,
मुझसे अब आराधना।
भगवान अगर तुम हो तो फिर,
ये कोहराम कैसा हो रहा।
अगर नही हो तो फिर,
तेरा नाम कैसा हो रहा।
हर तरफ मानव दहशत में जी रहा।
घुट-घुटकर आँसुओं का घुट पी रहा।
आशाओं के दीप थामें ,
लौ को हवाओं से बचा रहा।
होकर कैद घण्टों प्रतिपल
क़ैदियों सा जी रहा।
हां, हा भगवन तुम ये सब,
निर्दयी बन क्यों देख रहा।
मानव का जीवन तो इस पल,
ना इधर रहा ना उधर रहा।

✍️ सुप्रसन्ना झा
जोधपुर , राजस्थान

" समीक्षा " -

आदरणीय सुप्रसन्ना जी द्वारा रचित ये रचना आज फैली महामारी की वेदना को दर्शाती है कि मनुष्य आज इस महामारी से कितना लाचार है। इस इतना भयवीत है कि पता नहीं कब कौन सी अप्रिय घटना सुनने को मिल जाये बस उस भगवाग से प्रार्थना है कि अगर तुम हो तो इतना कोहराम क्यो है।और तू इतना निर्दयी होकर ये सब क्यों देख रहा है। अब मुझसे तेरी पूजा भी नहीं होती।हर इंसान साँसों के दीप ज़हरीली हवाओं से बचने का असफल प्रयास कर रहा है।
सुप्रसन्ना जी की रचना यथार्थ से लबरेज़ है।

सुप्रसन्ना जी की कई रचनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है।आपका एक कविता संग्रह भावांजलि भी है। मैं ऐसी प्रखर लेखनी को नमन करता हूँ।

समीक्षक ✍️ आ. प्रमोद ठाकुर जी
ग्वालियर , मध्य प्रदेश
9753877785
--------------------
6.

श्री अनिल राही
शिवालय 93 मनोहर एनक्लेव
सिटी सेंटर ग्वालियर
मध्यप्रदेश 474011
9425407523
प्रबंधक
अपैक्स बैंक
सिटी सेंटर शाखा
ग्वालियर
उपलब्धियाँ*****
देश के विभिन्न साहित्य समूहों से जुड़कर अपनी रचना के माध्यम से अपने सृजन में निखार लाना प्रोतसाहन के रूप में प्राप्त ढेरों प्रमाणपत्र, कहानी,कविता,लेख,समीक्षाओं में गहन अभिरुचि, सामाजिक उत्तरदायित्व को अखिल विश्व गायत्री परिवार शांति कुंज हरिद्वार से जुड़कर मिशन के कार्यों में शाखा ग्वालियर के माध्यम  से गतिशीलता प्रदान करना आदि ।

रचना - " पंचतत्व "

क्षिति, जल, पावक, गगन समीर
पंच रचित यह अधम शरीर।
पाँच तत्व से बनी यह काया
फिर क्यों गुमान करो इस पर
क्यों इस पर इतना इतराना।
इक दिन माटी में , है मिल जाना।
पंच तत्व मिल करकें,
दे रहे जीवन का संदेश।
धरती पर सुख से रहना  सीखों
संम्मान करों पवित्र माटी का
यही रीत हम सबको है निभाना।
इक दिन माटी में, हैं मिल जाना।
जल को पवित्र बनाकर,
प्रदूषित रहित है बनाना
जल ही जीवन है सबका
इस संदेश को हर घर है पहुँचाना।
इक दिन माटी में , है मिल जाना।
हवा में ज़हर घोलकर,
पूरा वायू मंडल अशुद्ध कर दिया
वायू मंडल से इसे है हटाना
इक दिन माटी में, है मिल जाना।
शुद्ध स्वच्छ निर्मल रहेगा आकाश
निश्चन्द निर्वात परिन्दें उड़ते पक्षी
इंद्र धनुषी छटा से बिखरा
नील गगन आकाश
धरती पर छनके स्वर्णमयी,
आयेगा प्रकाश
आकाश की इस सुंदरता को
प्रखर है बनाना।
इक दिन माटी  में, है मिल जाना।

✍️ अनिल राही
ग्वालियर
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _
समीक्षा :-

अनिल राही जी की लेखनी जब कागज़ पर विचरण करती है तो बिल्कुल आज़ाद परिंदे की तरह कागज़ पर शब्दों को उनके भावों को उकेरती चली जाती है और सृजन होता है न भूलने बाली एक अद्भुत रचना का इस रचना में भी उन्होंने कितनी सहजता से कितना अद्भुत सन्देश छोड़ा है कि मनुष्य का शरीर  पाँच तत्वों से बना है फिर भी हम भौतिक वस्तूओं के पीछे भागते रहतें है और प्रकृति को कितना नुकसान पहुचते हैं इसी का नतीजा है कि आज हम कितनी ही महामारियों से जूझ रहे है हमने भौतिक वस्तूओं का भोग करतें करतें अपने चारों और प्रदूषण की एक चार दिवारी बना ली इतना दिखावा क्यों जब सभी को इक दिन इसी मट्टी में मिल जाना है।

अनिल जी से कोई भी विषय अछूता नही रहा हर विषय पर इनकी कलम ने अपने जौहर दिखाएं है।तानसेन की नगरी ग्वालियर की मिट्टी ही ऐसी है
इस मिट्टी  को शत शत नमन।

समीक्षक ✍️ आ. प्रमोद ठाकुर जी
ग्वालियर , मध्य प्रदेश
9753877785
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _
7.

अंक 22 -24
विधा-
कविता
( केवल एक मात्रा "आ" पर लिखी हुई)

मन पटल पर,
ग़म का बादल छाया।
बसन्त हवा,
एक नया सहर लाया।
उस बसन्त हवा,
रथ पर चढ़।
झटपट उस,
पथ पर चल।
जल सा बहाव बना,
पत्थर पर राह बना।
ह्रदय का अंधकार खत्म कर,
राह उन्नत का पथ पकड़
अब नया सहर का
प्रकाश आया।
मन पटल पर,
ग़म का बादल छाया।
बसन्त हवा,
एक नया सहर लाया।

✍️ प्रमोद ठाकुर
ग्वालियर
9753877785

8.

गीत  या धरती राजस्थान  री,
  
या धरती राजस्थान री,
करता इसपे अभिमान री।
लगे स्वर्ग सी सुन्दर ये,
न्योछावर कर दूँ जान री।।
या धरती राजस्थान री,
करता इसपे अभिमान री।
पन्ना का कलेजा फट जाये,
बैरी की खड़ग जब चल जाये।
बेट का लहू फिर बह जाये
, लग जाये-बाज़ी जान री।।
या धरती राजस्थान री,
करता इसपे अभिमान री।
एक नार हुई क्षत्राणी थी,
सिर काट के दी सेनाणी थी।
चुन्डा की जान बचाणी थी,
प्रिय की बच जाये जान री।
या धरती राजस्थान री,
करता इसपे अभिमान री।।
पद्यमिनी की अजब कहाणी थी
,खिलजी की नीत डिगाणी थी।
जौहर की आग पिछाणी थी,
घट ना जाये कोई मान री।।
या धरती राजस्थान री,
करता इसपे अभिमान री।
मीरा गिरिधर की दासी थी,
दर्शन की बहुत वो प्यासी थी।
राणा के गले की फाँसी थी,
रजपूती मिट जाये आन री।।
या धरती राजस्थान  री,
करता इसपे अभिमान री।
गोरा बादल दो वीर हुए,
गोरा के जिस्म के तीर हुए।
रण के ऐसे रणवीर हुए,
धड़ का भी हो गुणगान री।।
या धरती राजथान री,
करता इसपे अभिमान री।
घायल घोड़ा भी जब दौड़ा
,चेतक को लगा जख्म थोड़ा,
स्वामी को सकुशल ला छोड़ा
,बच गई मेवाड़ी आन री
या धरती राजथान री,
करता इसपे अभिमान री।
प्रताप सा कोई वीर नहीं,
दुश्मन की उठे शमशीर नहीं।
जो बाँध सके जंजीर नहीं,
गाथा-मेवाड़ी शान री।
या धरती राजथान री,
करता इसपे अभिमान री।।
या धरती राजथान री,
करता इसपे अभिमान री।
लगे स्वर्ग सी सुन्दर ये
,न्योछावर कर दूँ जान री।।
या धरती राजथान री,
करता इसपे अभिमान री।

✍ शायर देव मेहरानियाँ
    अलवर,राजस्थान
(शायर, कवि व गीतकार)
_7891640945
9.
# नमन मंच
साहित्य एक नज़र पत्रिका

🏘️ " मकान " 🏠

कंकड़ पत्थर जोड़ के,
अपनों को पीछे छोड़ के,
छल कपट के ईटों से ,
आज बनता है मकान l
माँ की आँखों का पानी ,
पिता के अरमानों का गारा ,
भाई से अनबन करा कर ,
आज बनता है मकान l
देखने में ताजमहल ,
सौंदर्य की प्यारी मुरत ,
चकाचौंध से भरपूर ,
आज बनता है मकान l
हसरतों की चीख से ,
घूंटती दीवारों के अंदर ,
दम तोड़ते रिश्तो से ,
आज बनता है मकान l
घर की चाहत वालों को ,
घर मिले या ना मिले ,
हर गली चौराहे पर ,
मिल जायेगा ऐसा मकान l

✍️ भूपेन्द्र कुमार भूपी 🙏
       नई दिल्ली

10.
प्रकाशनार्थ मेरी रचना सादर प्रेषित है

दुनिया में होड़ मची हुई है
अरबपतियों के बीच
एक को पछाड़कर उससे
आगे निकलने की
हर कोई निकल जाना चाहता है
दूसरे को धकेलकर आगे
इस प्रतिस्पर्धा के बीच
बहुत से लोग जुटे रहते हैं
पूरी आक्रमकता के साथ
एक को कम तो
दूसरे को अधिक पूंजी एकत्रित कर
नम्बर एक पर पहुंचाने में
इस प्रकार वे जाने अनजाने
शरीक हो जाते हैं
पूंजी के आकर्षक खेल में
इस प्रकार वे खोज लेते हैं
अपनी खुशियों को
नैतिक अनैतिक तौर से
वे सम्बल प्रदान करने वाले
प्रयोजको की भीड़ में
और एक के आगे बढ़ने
तथा दूसरे के पिछड़ने पर
वे खुश एवं दुःखी होते हैं
इस तरह वे शुरू हो जाती है
पूंजीपतियों द्वारा जनता से
कभी न खत्म होने वाली
लूट खसोट में
जिसमें सहायक बन साथ देती हैं
धनिकों द्वारा संचालित संस्थाएं

✍️ प्रद्युम्न कुमार सिंह
बांदा बबेरू उ०प्र०
11.
सादर प्रेषित

               ग़ज़ल

कैसी जुल्मी...हवा ये चलती है
कितनी ही जिन्दगी निगलती है |1
कौन आके कहे  किसी को ये
बात सच है तुम्हारी  गलती है |2
जानकर बेखबर से है सब ही
मौत ही  जिदंगी को छलती है| 3
फैसला जब.वहाँ से आ जाये
वो घडी फिर  नहीं बदलती  है| 4
गम किसी के सदा नहीं रहते
रात आती है .. रोज़ ढलती है| 5
बेवफाओं से ये उम्मीदे वफा
रेत मुट्ठी की ...है फिसलती है| 6
प्रेम कर्मों की ....मार है सारी
दर्दो गम मे ढली जो मिलती है| 7

✍️ डॉ. प्रमोद शर्मा प्रेम
नजीबाबाद बिजनौर

12.
🕯️🕯️दीप स्वयं का बनो 🕯️🕯️

होगा अविजित जीवन तेरा,
तू जीत स्वयं से  युद्ध।
मानव रख सोच सकारात्मक,
कह गये महात्मा बुद्ध।।
दीप स्वयं का बनो,
प्रकाशित कर दो जग सारा
सत्य का मार्ग नहीं छोड़ो,
यह कभी नहीं हारा
खोजे अपनी दुनिया,
यह प्राणी का अधिकार
नहीं किसी से करो घृणा,
जीवों से करिए प्यार।
निंदा,क्रोध, त्याग दे तो,
हो जाता प्राणी शुद्ध।
मानव रख.......
हिंसा दुराचार मत करना,
मत करना नशाखोरी
व्याभिचार, मिथ्या भाषण,
और मत करना चोरी
भूतकाल में उलझो मत,
सपनों में न खो जाना
वर्तमान में जियो सदा,
खुशियों को तुम पाना।
क्रोध जलाता खुद को ही
,रह मत प्राणी क्रुद्ध।
मानव रख.......
प्रेम स्वयं से करता जो,
दुःख किसी को न देता
जगत में अपनी राह स्वयं
और भाग्य बना लेता स्वास्थ्य
बड़ा उपहार और संतोष बड़ा है धन
शांति और सद्भाव बिना,
रहता है अधूरापन
पा लोगे इनको,मत जीना,कभी
प्रकृति विरूद्ध।
मानव रख.....

✍️ डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर उत्तर प्रदेश

13.

ग़म कोई भी हो मुस्कुराते रहें,
दर्द कोई भी हो गुनगुनाते रहें।
ये जिंदगी है कोई खेल नही,
इसको खेलें नहीं खिलखिलाते रहें।।
सुख भी आते रहें दुख भी आते रहें,
गीत इन दोनों में हम गाते रहें।
सुख दुःख तो धर्म मन के हि हैं,
अपने मन को प्रभु में लगाते रहें।।
लाभ हानि न देख कर्म करते रहें,
जग में जहां भी रहें हम चलते रहें।
न अकेले रहें न किसी को रखें,
सबमें प्रेम की अलख जागते रहें।।
कुछ पढ़ते रहें कुछ पढ़ाते रहें,
कुछ लिखते रहें कुछ मिटाते रहें।
कुछ गाते रहें कुछ गवाते रहें,
कुछ सुनते रहें कुछ सुनाते रहें।

  ✍️ डॉ0 जनार्दन प्रसाद कैरवान
    प्रभारी प्रधानाचार्य
श्री मुनीश्वर वेदाङ्ग महाविद्यालय ऋषिकेश
        उत्तराखंड
10.

उगता मार्तंड नया संवाद देता है,
नवीन मयूख से स्फुरण
का संचार होता है,
हल्की-हल्की धुंध में चलने
का मजा ही अलग होता है,
गरम कॉफी की गुनगुनाहट
से मन चंचल होता है,
विहंगो के गीत ,पुष्पों की महक,
प्राकृतिक संरचनाओं को देख
मन भावविभोर होता है,
सैर करते युवाओं को देख....
नए निर्माण का अनुभव होता है,
अरुणोदय की कांति से ही
तो नए पथ का,
उन्माद अनुभव होता है।

✍️ इं. निशान्त सक्सेना "आहान"✍️...

14.
भाग....2 प्रकाशन हेतु 🙏

मानवता का लक्ष्य

बात जो इंसान
को इंसान बनाती है...
बात वही तो बस ,
मानवता कहलाती है....
देख कर दर्द किसी का उर में,
जो  पीर भर देती है ...
निस्वार्थ हृदय को करुणा  के रस
से जो भर देती है
बात वही तो बस ,
मानवता कहलाती है...
अपना और पराये का जो फर्क
नहीं कर पाती है
पीड़ा और दर्द देख कर 
ह्रदय को पिघला जाती है...
बात वही तो बस ,
मानवता कहलाती है...
देख अश्रु जो जग के,
करुणा का भाव जगाती है...
सेवा और समर्पण का
कर्तव्य हमें सिखाती है
बात वही तो बस
,मानवता कहलाती है..
यह जग है दरिया दुःख का,
देख  जो टीस दे जाती है
क्रंदन और सिसकियों को सुन
उनको सहलाना सिखलाती है...
बात वही तो बस ,
मानवता कहलाती है.....
बाँट लें मानवता की खातिर
दर्द भरे दुःख के साये...
तड़प भरी आहों का क्रंदन
घुला हुआ है साँसो में
लहर दर्द की बिखर रही है
आते- जाते झोंको में...
मानवता की खुशबू को भर दें उन
उखड़ी सी आशाओं में....
थोड़ी सी मुस्कान भी भर दें
उनकी रोती हुई आँखों में....
बात यही तो
बस मानवता कहलाती है..
चलो किसी सिसकी का  हम
भी  सम्बल बन जायें..
आज मानवता की खातिर
सर्वस्व न्योछावर कर जायें..
मानवता  को मान लक्ष्य कुछ तो
फर्ज निभा जायें...
भाव रहें सदा समर्पित
दूजों के काम आ पाएँ...
हो मुश्किल  चाहे कितनी भी
राह ना हमको भटका पाये....
हम मानवता के पथ पर निरंतर
आगे ही बढ़ते जायें
बढ़ते जायें... बढ़ते जायें...

✍️ श्रीमती पूजा नबीरा
काटोल , नागपुर , महाराष्ट्र
स्वरचित

15.
जमीर
****************

गिरा जो अपना 1रुपया
तो पश्चाताप बार-बार करते हो,
दूसरों का ले हजारों
किए हो जो गमन,
जरा सोचो उस पर
क्या बीतती होगी?
स्वार्थ का पर्दा लगाए हो
जो जमीर में,
सच का आइना ले
देखो तो जरा,
ईमान खुद बोल देगा
जमीर बचाओ यारों।
किसी का तुम
विश्वास क्यों तोड़ते हो?
कल कोई और
याचक बन आएगा ,
:तो उसका जवाब क्या होगा?
जरा सोचो यारों।
हम खून बेचकर है
रिश्ते चलाएं
पर उस के बंधन
में जमीर न था ,
उसकी ये हरकत
अब देख यारों
दिल किसी और को
इजाजत न देता ।
दिखावा कर के जिंदगी
कैसे भी जी लो यारों,
पर असल जिंदगी
जमीर वालों का है नागा ।

लेखक– ✍️  धीरेंद्र सिंह नागा
ग्राम जवई ,तिल्हापुर,
(कौशांबी) उत्तर प्रदेश  212218

16.
मान्यवर,
        यह मेरे मित्र की रचना है ,जिसे भेज रहा हूँ और प्रतिदिन अखबार का प्रचार प्रसार कर रहा हूँ, आशा है आपको पसंद आयेगी ।

कविता
नारी तुम जीवन की परिभाषा हो -

नारी तुम ममता की मूरत
मन का अनुबंध हो
प्रेम का प्रबंध हो
कोयल सी लगती है बोली
तुम जीवन की परिभाषा हो
जीवन को अंकुर देकर
माता बनकर उर्जित हो
खुशियों की भण्डार हो
तुम ही संपूर्ण परिवार हो
परिवार की शान हो
तुम ही जगत की उत्थान हो
प्रेम का सागर है तुममें
रंग भरी फिर होली
घर की मर्यादा है,तुम ही से
प्रेम पूर्ण की वादा हो
खुशियों की ईरादा हो
सब कुछ है तुम्हारे अंदर
लगती हो, सृष्टि में सुंदर ।।
                     
     ✍️  गोपाल रजक(सहयोगी शिक्षक)
उत्क्रमित उच्च विद्यालय गादी
श्री रामपूर गिरिडीह, झारखंड ।

17.

शिक्षित राष्ट्र समर्थ राष्ट्र

"व्यवहार परिवर्तन की दर को शिक्षा कहते हैं" और प्रति इकाई व्यवहार परिवर्तन करवाने वाले को शिक्षक कहते हैं।
          शिक्षा को इंसान का तीसरा नेत्र भी कहा जाता है और जब मनुष्य जन्म लेता है तो ये नेत्र उसका बिल्कुल बन्द होता है अर्थात वो अंधकार में होता है।माता -पिता और गुरुजन मनुष्य के इस तीसरे नेत्र में ज्ञान रूपी प्रकाश डालते हैं जिससे मनुष्य का जीवन देदीप्यमान हो उठता है जिसके दिव्य प्रकाश से समाज और देश का भविष्य भी चमक उठता है।
        वास्तव में शिक्षा व्यक्ति के दिल को नरम,जहन को ठंडा  तथा मन को सहजता जैसे गुणों का धारक बनाती है। शिक्षा में केवल पाठ्यपुस्तकें  सीखना शामिल नही है ,बल्कि इसमें मानवीय मूल्यों ,कौशलों तथा क्षमताओं में भी वृद्धि की विधि और अपेक्षाएं शामिल है। इससे व्यक्ति को अपने कैरियर और प्रगतिशील मूल्यों के साथ समाज और राष्ट के निर्माण में  एक उपयोगी भूमिका निभाने में सहायता मिलती है। अतः शिक्षित व्यक्ति स्वयं  की बेहतरी के साथ-साथ  पूरे समाज मे बदलाव ला सकता है।
             सही मायने में राष्ट्र का धन बैकों में नही अपितु विद्यालयों में होता है। शिक्षित जनता अपने समाज और राष्ट्र की उन्नति में अहम भूमिका निभाती है। तभी राष्टपिता महात्मा ग़ांधी जी ने कहा था कि" शिक्षा एक ऐसा साधन है जो  राष्ट्र की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाने में एक जीवंत भूमिका निभा सकता है।"शिक्षा  किसी भी देश के नागरिकों के विश्लेषण क्षमता के साथ-साथ उनका सशक्तिकरण करता है ,उनके आत्मविश्वास का स्तर बेहतर बनाता है और उन्हें शक्ति से परिपूर्ण कर दक्ष बनाने के लक्ष्य को प्राप्त करता है।जो कि किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र की उन्नति और सामर्थ्य को परिलक्षित करता है। अतः शिक्षित राष्ट्र ही समृद्ध राष्ट्र बन सकता है।

✍️ प्रवीण झा

18.
मां सरस्वती
साहित्य एक नजर
दिनांक   1,6,21
आंखें (शीर्षक)

आँखें

कजरारी आंखों में
वासना मत तलाशो
गौर से देखो , उन्हीं नयनों में
मां का आशीर्वाद,बहन का स्नेह,
पत्नी का समर्पण और
बेटी का लाड़ दिखाई देगा,
जो जकड़ लेगा तुम्हें
अदृश्य स्नेहपाशों में ।
दृष्टि हीन न बनो धृतराष्ट्र की तरह,
जिसने महाभारत करा दी थी,
स्वयं अपने सर्वनाश को
आंखें खोलो !
ये वो बेजुबान
किताब होती हैं
जो सब इजहार कर देती हैं
शब्दों के बगैर ,,,

✍️ पूनम शर्मा , मेरठ

19.
नमन मंच
#साहित्य  एक नजर कोलकाता से प्रकाशित दैनिक पत्रिका
#दिनांक-01/06/2021
#विषय-प्रेम ही जीवन है
विधा
कविता
प्रेम ही जीवन है  -

प्रेम ही जीवन है प्रेम
जीवन का सार..
प्रेम बिन जीवन है बेकार.
जीवन में प्रेम है तो,
सकल जहाँ गले मिल जाय
दु:ख सुख में अरु शत्रु
मित्र में बदल जाय..
प्रेम ही जीवन है प्रेम
जीवन का सार.
प्रेम बिन जीवन है बेकार.
नारायण ने नर को दी है सीख,
सुख बाँटोगे तो सुख मिलेगा,
अरु दु:ख के बदले पीड़ा
मन ही मन दुखाय ..
प्रेम ही जीवन है प्रेम
जीवन का सार..
प्रेम बिन जीवन है बेकार.
ऋषियों ने प्रेम दिया,
जग को अपना बना लिया
क्यों खोयी हमने यह पुरानी रीत.
आज दु:खी है सकल संसार.
प्रेम ही जीवन है
प्रेम जीवन का सार.
प्रेम बिन जीवन है बेकार.
प्रकृति ने  हमको
दिया नव जीवन,
फल जल अरु सुनहरा कल,
जीव जगत विन
नारायण भी बेकार..
प्रेम ही जीवन है प्रेम जीवन का सार.
प्रेम बिन जीवन है बेकार..

✍️ डॉ0 श्याम लाल गौड
सहायक प्रवक्ता
श्री जगद्देव सिंह संस्कृत महाविद्यालय
सप्त ऋषि आश्रम हरिद्वार।
9837165447
shyamlalgaur11@gmail.com
20.
अंक-- 21 के लिए मेरी कविता

    ये हंसी -

कोरोना का बीत गया एक साल,
न गया और ना ही खत्म हुआ यह काल,
दुबारा फैल रहा है तीव्र
गति से दूसरी लहर में यह काल,
ये हंसी मुश्किल से लौटी
है इसे सहेज के रखिए,
मास्क लगाना जरूरी है और
दो गज की दूरी ये याद रखिए,
भले आ गया है कोरोना का
वैक्सीन तुम न इतराना,
क्योंकि...!
कोरोना का प्रवेश
वैक्सीन नहीं रोकेगा,
आँख-मुँह और
नाक से प्रवेश करेगा,
इसलिए..,
बार-बार हाथ धोइए
भीड़-भाड़ में कम जाइए,
हो सके कम से कम
घर से बाहर जाइए,
माना कि रंगों का त्योहार भी है,
पर ध्यान रखना भी जरूरी है,
कहीं रंग में भंग न हो जाए,
खुशियों का माहौल
गमगीन न  हो जाए,
खुद भी सुरक्षित रहे
अपनों को भी रखे,
समय को देखते सरकार के
आदेशों की पालना भी रखे,
ये हंसी मुश्किल से लौटी है
इसे सहेज के रखिए !!

✍️ चेतन दास वैष्णव
    गामड़ी नारायण
   बाँसवाड़ा राजस्थान

_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _
21.
नमन 🙏 :-  साहित्य एक नज़र
कविता -
कुछ नया दूँ रच ।

सोचा हूँ दूँ कुछ नया रच ,
जज़्बात होनी चाहिए बस ।।
जो करता संघर्ष वही
पीता मीठा रस ,
जान चुका हूँ
इस ज़िन्दगी की रहस्य ।।
तब इस जीवन से
कुछ ऐसा रच ,
हर कहीं जाएं तुम्हारी
शोर मच ।
क्या जाता बोलने में
बोल सच ,
सच बोलने पर विपक्ष
भी देगा तुम्हारा पक्ष ।।

✍️ रोशन कुमार झा
सुरेन्द्रनाथ इवनिंग कॉलेज,कोलकाता
ग्राम :- झोंझी , मधुबनी , बिहार,
मंगलवार , 01/06/2021
मो :- 6290640716, कविता :- 20(14)
साहित्य एक नज़र  🌅 , अंक - 22
Sahitya Ek Nazar
1 June 2021 ,  Tuesday
Kolkata , India
সাহিত্য এক নজর


_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _
22.
पहली बार उसकी
मुस्कुराती आँखों में
मैंने नमीं देखी थी.
मुझे पता है वो
आंखें देख नहीं सकती
जो कांच की बनीं हो....
वे आंखें जो कभी मौन
कभी आर्तनाद करती थी
झुकती थी कभी उठती थी
न जाने कितने सवाल करती थी...
उसकी आंखें बता दिया करती थी
कि आज मौसम फूलों का है...
सुना है उसने एक आईना
छूपा रक्खा है
अपने भीतर..
जिसमें वो निहारती है
शर्माती है खुद से
वो देखती है सपने मन की आंखों से
पर बयां नहीं कर पाती
सपने आते हैं उसकी पुतलियों तक
फिर वहीं से लौट जाते हैं
उसने अपने हिस्से का पुरा
बसंत नहीं देखा
किसी ने झांककर
उसकी आंखों का राज नहीं खोला.
कितने रंग समाये थे उसकी आंखों में                           आसमान की तरह नीली नीली
मखमली घास की तरह हरी हरी या
फिर किसी गहरी सुरंग के मानिंद
जिसमें एक नदी बहती है
जो अब सूख चली है...

✍️ पुष्प कुमार महाराज
गोरखपुर , उत्तर प्रदेश
23.

प्यारे पापा
*******
अब तक थे जो नज़रों के सामने,,,,,
अब तो बस सदृश ही दिखते,,,,,,,,,
प्यार और डांट से गलतियाँ सुधारते,
हमारे सिर पर आशीष का हाथ धरते,,
मत घबराना, मत डरना की सीख देते,,,
हमारी हिम्मत और हमारा हौसला बढ़ाते,
पल पल हर मुश्किल घड़ी में साथ निभाते,,
जाने कहाँ चले गए रोता बिलखता,,
अब न उनकी आवाज़ देती सुनाई,,
न उनके कदमों की आहट से हम ठिठकते,,,,
उनके बिन घर का हर कोना सूना सा लगता,,
हर छण उनका एहसास होता पर वो पास न होते,,,
उनकी यादों में बस आँखें भर आती,,
जो कभी रोने न देते वो अब हमें खूब रुलाते,,
अब आपके संग न होने की पीड़ा सह न पाते,,
कभी सोचा न था ये दिन भी आएगा,
प्रेम और आशीष का हाथ यूँ हट जाएगा,,,
आपने साथ भले छोड़ा हो पर दिल से कभी न जाएंगे,,,,,
आपका कर्ज कभी न हम चुका पाएंगे,,,,
बिन बोले विन मिले जाने कहाँ चले गए,,
हमें रोता बिलखता छोड़ जाने कहाँ चले गए,,,
काश आप तक हम पैगाम भेज। पाते,,,
बिन आपके हम कितने अधूरे ये देख पाते,,,,
बहुत याद आती है पापा😭😭😭🙏🙏🙏💐💐💐

✍️ प्रज्ञा शर्मा
प्रयागराज


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